Sunday, April 26, 2009

दिल की बात आलू के बहाने

पड़ोसन अपनी पड़ोसन से चार पांचआलू ले गई। कई दिनों बाद वह उन आलुओं को वापिस करने आई। मगर जिसने आलू दिए थे उसने आलू लेने से इंकार कर दिया। उसके अनुसार आलू वापिस करना उनके अपमान के समान है। बात तो इतनी सी है। लेकिन है सोचने वाली। क्योंकि उन बातों को अधिक समय नहीं हुआ जब पड़ोसियों में इस प्रकार का लेनदेन एक सामान्य बात हुआ करती थी। यह सब बड़े ही सहज रूप में होता था। इस आपसी लेनदेन में प्यार, अपनापन,संबंधों की मिठास छिपी होती थी। किसी के घर की दाल मोहल्ले में ख़ास थी तो किसी के घर बना सरसों का साग। फ़िर वह थोड़ा थोड़ा सबको चखने के लिए मिलता था। शाम को एक तंदूर पर मोहल्ले भर की महिलाएं रोटियां बनाया करती थीं। दोपहर और शाम को किसी ने किसी के घर के चबूतरे पर महिलाओं का जमघट लग जाता था। पास की कहीं हो रहा होता बच्चों का शोर शराबा। पड़ोस में शादी का जश्न तो कई दिन चलता। मोहल्ले की लड़कियां देर रात तक शादी वाले घर में गीत संगीत में डूबी रहतीं। घर आए मेहमानों के लिए,बारातियों के लिए घर घर से चारपाई,बिस्तर इकठ्ठे किए जाते। किसी के घर दामाद पहली बार आता तो पड़ोस की कई लड़कियां आ जाती उस से मजाक करने। कोई नहीं जाती तो उसकी मां, दादी, चाची ताई लड़की से पूछती, अरे उनके जंवाई आया है तू गई नी। जा, तेरी मासी[ पड़ोसन] क्या सोचेगी। तब आंटी कहने का रिवाज नहीं था। तब हम रिश्ते बनाने में विश्वास करते थे। कोई भाभी थी तो कोई मामी हो जाती। इसी प्रकार कोई मौसी,कोई दादी, कोई चाची, नानी आदि आदि। पड़ोस में नई नवेली दुल्हन आती तो गई की सब लड़कियां सारा दिन उसको भाभी भाभी कहती हुई नहीं थकती थीं। गली का कोई बड़ा गली के किसी भी बच्चे को डांट दिया करता था। बच्चे की हिम्मत नहीं थी कि इस बात की कहीं शिकायत करता। आज के लोगों को यह सब कुछ आश्चर्य लगेगा। ऐसा नहीं है, यह उसी प्रकार सच है जैसे सूरज और चाँद। आज सबकुछ बदल गया है। केवल दिखावा बाकी है। हम सब भौतिक युग में जी रहें हैं। लगातार बढ़ रही सुविधाओं ने हमारे अन्दर अहंकार पैदा कर दिया है। उस अहंकार ने सब रिश्ते, नातों, संबंधों को भुला दिया , छोटा कर दिया। तभी तो पड़ोसन अपनी पड़ोसन को आलू वापिस करने आती है।

8 comments:

दिनेशराय द्विवेदी said...

ये सब बातें स्वप्न होती जा रही हैं।

Anil Kumar said...

"सांझा चूल्हा" अब नहीं जलता। शहरी पड़ोसियों को पड़ोसियों का नाम तक मालूम नहीं। लेकिन गाँवों और कस्बों में अभी भी आत्मीयता कायम है।

अनिल कान्त said...

ab ye sab kahan ...ab to bagal mein rahne wala mishra ji nahi jante ki humara naam kya hai :)

गगन शर्मा, कुछ अलग सा said...

यह सब याद आते ही दिल में आक्रोश और आंखों में पानी आ जाता है।

सतीश पंचम said...

ये सुनहरा दौर अब गाँवों में भी नहीं रहा। वहाँ भी अब कटे कटे से रहने की लोगों की आदत पडती जा रही है।

विधुल्लता said...

bas ahankaar badaa ho gayaa hai ji .....ise koi samjhe to sahi badhiyaa post

कनिष्क कश्यप said...

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सागर नाहर said...

अब वे जमाने गये साहब, अब गांवों में भी किसी को फुर्सत नहीं है। किसी को अपने फेवरेट टीवी धारावाहिक की चिन्ता है तो किसी को कुछ और।
पड़ौसी के यहां दामाद आये तो उसे अकेला भोजन करने के लिये बिठाना अपमान समझा जाता था, घर का कोई नहीं तो पडौसी का कोई छोटा बच्चा भी दामाद के साथ बैठता था, अब कहां वे दिन...
बहुत कुछ याद दिला दिया आपकी पोस्ट ने।