Tuesday, September 29, 2015

अपनी लड़ाई खुद लड़नी पड़ी कमला बिश्नोई को



श्रीगंगानगर। नगर परिषद आयुक्त के साथ हुए विवाद मेँ पार्षद कमला बिश्नोई आखिर अपनी लड़ाई खुद ही लड़नी पड़ी। हालांकि उनके साथ पूर्व विधायक हेत राम बेनीवाल, व्यापारिक संगठनों के पदाधियाकरी और कांग्रेस नेता थे। लेकिन बड़े साहब के सामने अपनी पैरवी खुद करनी पड़ी। ऐसा नहीं कि बाकी नेता बोले नहीं, बोले। मगर कमला बिश्नोई का अंदाज अलग था। क्योंकि वे अपनी लड़ाई लड़ रहीं थीं। कलक्ट्रेट सभाकक्ष के गेट पर बड़े साहब के सामने इनका प्रतिनिधि मण्डल था। बड़े साहब बोले, न्याय करेंगे। कमला बिश्नोई ने पूछा, कब। आप समय बताओ। रोज रोज नहीं होता। शहर मेँ अच्छा मेसेज नहीं जा रहा। कोई ....गंदा बता रहा, कोई उसे। कमला बिश्नोई ने कहा, आपको शर्म आनी चाहिए, आपकी बहिन संघर्ष कर रही होती तो क्या होता? आप समय बताओ। आप मुझे जेल मेँ डाल रहे हो। कई देर तक अपनी बात कहती रहीं कमला बिश्नोई। फिर कभी जगदीश जांदू को आगे किया कभी तरसेम गुप्ता को। कुछ मिनाट  के बाद बड़े साहब ने बोल दिया कि वे आज कमला बिश्नोई को बुलाकर बात करेंगे। उसके बाद वे चले गए। कमला बिश्नोई ने अपनी समर्थक महिलाओं के साथ हनुमान चालीसा बोलना शुरू कर दिया। पहले तो वहीं बैठ कर बोलने लगीं, फिर किसी ने कह दिया कि अब घर जाओ, तो वे जाती हुई हनुमान चालीसा बोलती रहीं। इससे पहले पंचायती धर्मशाला मेँ बैठक हुई। बैठक के बाद कलक्ट्रेट के अंदर प्रदर्शन किया गया। बड़े साहब बात चीत के लिए अंदर बुला रहे थे। लेकिन प्रदर्शन कारी उनको बाहर आने को कह रहे थे। बड़े साहब ने लंच पर जाना था। इसलिए वे बाहर आए। तब ये बात हुई। 


जिनके कंधों पर जाना थे, वे बेगाने हो गए
मैं तो वैसा ही रहा, लोग सब सयाने हो गए।
दोस्ती के सब किस्से, कब के पुराने हो गए

दोस्तों के संग बैठे, अब तो जमाने हो गए। 

Monday, September 28, 2015

पार्षद पति का परिचय


श्रीगंगानगर। सभापति के नेतृत्व मेँ बड़े साहब से मिलने गए पार्षद पतियों के सामने उस समय असमंजस की स्थिति हो गई जब उनको परिचय के लिए कहा गया। एक ने तो अपना परिचय पार्षद पति के रूप मेँ दिया। बाकी सभी अपने बारे मेँ यूं बता रहे थे, जैसे वे खुद पार्षद हों। लेकिन किसी ने नहीं टोका। टोकता कौन! साहब को पता नहीं, बाकी सब मेँ से अधिकांश तो उनके जैसे ही थे। असल मेँ साहब ने बिना परिचय हुए बात करने से इंकार कर दिया। उनका कहना था कि बात चीत के लिए परिचय जरूरी है।

अपनी लड़ाई खुद लड़नी होगी कमला बिशनोई को

श्रीगंगानगर। नगर परिषद आयुक्त की ओर से दर्ज करवाए गए मुकदमे के बाद संकट मेँ आई पार्षद कमला बिशनोई को अपनी इलड़ाई खुद ही लदनी होगी। बेशक उनके समर्थन मेँ संघर्ष समिति का गठन हो चुका है। संयुक्त व्यापार मण्डल सहित कई संगठनों का उनको समर्थन है। लेकिन कोई भी इस मुद्दे को इस प्रकार से नहीं उठा पा रहा, जिससे पार्षद को राहत मिल सके। क्योंकि अधिकांश का यही मानना है कि इस मामले मेँ करने को कुछ अधिक है नहीं। जिन संगठनों के दम पर संघर्ष समिति बनी है, उन संगठन के पदाधिकारी नेतृत्व करने को तैयार नहीं। अधिकांश पार्षद भी इस मुद्दे पर चुप हैं। उनकी ओर से ऐसा कुछ नहीं हो रहा, जिससे ये आभास होता ही कि प्रशासन पर किसी का कोई दवाब है। अब चूंकि बड़े साहब ने पंचायती करने से इंकार कर दिया, इसलिए मंगलवार को धरना शुरू किया जाएगा। जैसे कि पहले घोषणा की जा चुकी है। धरने पर खुद कमला बिशनोई को बैठना होगा। उनके समर्थन मेँ कोई बैठेगा तो बैठेगा। सूत्र कहते हैं कि कमला बिशनोई को इस मुद्दे पर जन समर्थन मिलना मुश्किल है। आज कोई पार्षद इस सवाल क अजवाब नहीं दे सका कि आखिर ऐसा कौनसा जनहित का काम था, जिसके लिए पार्षद कि आधी रात तक नगर परिषद मेँ आयुक्त ऑफिस मेँ रुकना पड़ा। 

बड़े साहब ने दिये सभापति को दिये 10 मेँ से 4 नंबर


श्रीगंगानगर। नगर परिषद सभापति अपने समर्थक कुछ पार्षदों, पार्षद पतियों के साथ जिले के बड़े साहब से मिलने गए थे जन हित के मुद्दे पर, लेकिन बड़े साहब ने पार्षदों से रेटिंग पूछ ली सभापति की। खुद ने बिना पूछे सभापति को 10 मेँ से 4 नंबर दिये। ये सब जन प्रतिनिधि गए तो थे अपनी सुनाने, सुनानी तो क्या थी, उनकी सुन कर आ गए। बड़े साहब ने पूछ लिया पार्षदों से, 10 मेँ से कितने नंबर देना चाहोगे सभापति को। सवाल ही ऐसा था, खामोशी छा गई। पुत्रवधू पार्षद के प्रतिनिधि के तौर पर आए मास्टर बलदेव सिंह बोले, 10 मेँ से 10 । उनकी हां मेँ किसी ने हां नहीं मिलाई। कुछ ने बात बदलने की कोशिश की। परंतु बड़े साहब ने अपने पास बैठे हुए सभापति की पीठ पर प्यार से  धोल जमाते हुए कहा, मैं तो 10 मेँ से 4 नंबर दूंगा। बात यहीं नहीं रुकी। उनका कहना था, शहर की हालत इसकी वजह से ऐसी हुई है, नगर परिषद के कारण। इसे गुंडा एक्ट मेँ बंद कर जोधपुर भेजूँगा। साथ मेँ ये भी कहा कि वे ये सब प्यार से कह रहे हैं। क्योंकि प्यार मेँ सब संभव है। बड़े साहब ने शहर के बारे मेँ खूब बात की। ड्रेनज सिस्टम कैसा होना चाहिए।  किस शहर मेँ कैसा है। सड़क कहाँ कैसी बनानी चाहिए। डेंगू हो तो क्या करें।  सरकारी और प्राइवेट डॉक्टर कैसे हैं। बहुत कुछ। कब्जों का जिक्र भी हुआ। किसी ने बीच मेँ बोलने की कोशिश की तो उसे ये कह कर बैठा दिया कि पहले मेरी सुनो। सभापति के पास बोलने को कुछ था ही नहीं। कभी किसी पार्षद की तरफ देखते, कभी किसी की तरफ। उन्होने ये भी कहा कि वे फंड लाने की कोशिश करेंगे। जहां से भी हो सकेगा, इसके लिए प्रयास करेंगे। पार्षद भी कहने लगे, आपके नेतृत्व मेँ शहर मेँ सुधार होना चाहिए।
कमला बिशनोई केस मेँ बड़े साहब ने किया पंचायती से इंकार
श्रीगंगानगर। जिले के बड़े साहब ने पार्षद कमला बिशनोई के खिलाफ दर्ज मुकदमे मेँ पंचायती करने से साफ साफ इंकार कर दिया। यह इंकारी सभापति अजय चान्डक के साथ गए पार्षदों, और  पार्षद पतियों के सामने आई। ये सभी शहर हित मेँ उनसे मिलने गए थे। इसी दौरान किसी ने इस मुद्दे को भी ले लिया। इस बार बड़े साहब ने चतुराई से कहा, उनको इसमें पंचायती करने का अधिकार नहीं है। वैसे भी यह मामला  80 प्रतिशत उनके क्षेत्राधिकार मेँ नहीं है। और केवल 20 प्रतिशत के लिए मैं अंगुली नहीं करता। साहब बोले, आयुक्त तो आत्महत्या की बात कर रहे थे। वे आहत थे और बार बार  सुसाइड करने की बात कह रहे थे। उनको मनाया गया। साहब बोले, मैंने उनसे ये कहा कि तुम मर गए तो मैं भी गया समझो। साहब ने कई कानूनी नुक्तों से सभापति और उनके साथ आए सभी को खामोश कर दिया। उन्होने उदाहरण देकर बताया कि ऐसे ही किसी  मामले मेँ एक डीएम ने पंचायती की थी। उनको नुकसान उठाना पड़ा था। कई साल परेशान रहे। साहब का कहना था कि इस प्रकार के मुकदमों मेँ पंचायती नहीं होती। इतना कुछ सुनने के बाद पार्षद कृष्ण स्याग बोले, साहब, ये तो कह सकते हैं कि इस मामले मेँ आपका रुख सकारात्मक है। अब साहब क्या कहते! हां कह दिया। सब कुछ। वैसे इन सबके साथ खुद कमला बिशनोई नहीं थी। सभापति के साथ आए अधिकांश पार्षदों ने कमला बिशनोई के मुद्दे को कोई खास महत्व नहीं दिया। वैसे खुद सभापति भी खामोश ही रहे।



Friday, September 25, 2015

मूर्ख ! शहर की नहीं, जन प्रतिनिधि की फिक्र कर !

श्रीगंगानगर। मेरी बची खुची आत्मा ने मुझे धिक्कारा, फटकारा और फिर बोली...तू मूर्ख है। नादान है। बेअक्ल है। पागल है। दीवाना है। तुझे शहर के मान सम्मान की चिंता है। इधर जन प्रतिनिधि का सम्मान दांव पर लगा है। तू उठ। कमर कस।  आग लगा। तूफान ला। कुछ भी कर। बस, जन प्रतिनिधि का सम्मान बचा । जन प्रतिनिधि का सम्मान बचना चाहिए। शहर का क्या? उसका सम्मान है, तो शहर का है। शहर उसी से बनता है। याद रख। याद नहीं रख सकता तो  अपने पल्ले गांठ बांध ले कि जन प्रतिनिधि से बड़ा कोई नहीं होता। वही सर्वोच्च सत्ता है। ऊपर ईश्वर की सत्ता है और शहर मेँ जन प्रतिनिधि की। ईश्वर के  बारे मेँ तो संभव है किसी को संदेह भी हो, लेकिन इसकी सत्ता पर किसी को कोई शंका नहीं हो सकती। ये ईश्वर है शहर के। इसलिए अपने मन, कर्म और वचन मेँ इसी  हिसाब से ले जन प्रतिनिधि को । इसे  वंदन कर। इनकी  गली का अभिनंदन कर। उस  चौखट पर सजदा कर, जहां ये विराजते हैं। प्राण प्रतिष्ठित हैं। अपराधी! पापी! अधर्मी! जन प्रतिनिधि द्रोही! तेरी हिम्मत कैसे हुई शहर की चिंता करने की! वह भी जन प्रतिनिधि से पहले। बेवकूफ! जब जन प्रतिनिधि के सम्मान के लाले पड़े हों तो तुझे शहर के सम्मान की चिंता करने की सलाह किसने दी!  तेरा पाप अक्षम्य है। इस घोर पाप से ना तो गंगा मेँ स्नान करके मुक्ति मिलेगी , ना पिंड दान करने से छुटकारा। ब्राह्मणों को भोज करवाएगा तब भी कोई फायदा नहीं होने वाला। तेरा पाप है ही इतना विशाल कि कोई क्या करे!  इस पाप से तुझे एक ही व्यक्ति मुक्त कर सकता है, खुद जन प्रतिनिधि। इसलिए उसकी शरण मेँ जा। अभय हो जा। ये क्षमाशील है। क्षमा भाव रहता है इनके दिलों मेँ। तुझे माफ कर देंगे। बस, उसके बाद से शहर के हालात की चिंता नहीं, जन प्रतिनिधि का सम्मान बचाने पर चिंतन करना । वो  कहे तो दिन। वो कहे तो रात। नादान बालक! हमेशा याद रखना, जन प्रतिनिधि से बड़ा शहर नहीं हो सकता। उसके सम्मान, स्वाभिमान के सामने शहर के सम्मान, आत्मसम्मान, स्वाभिमान की कोई औकात नहीं। वो समय और था जब देश, शहर महान हुआ करता था। तब दादाओं, पड़ दादाओं का जमाना था। आज बात और है। अब पोतों का जमाना है। तब आपसी संवाद था। आजकल फेसबुक और व्हाट्स एप है। इतना सब बदल गया तो तू भी बदल। शहर को भूल जा। जन प्रतिनधि को याद रख। तेरा मूल काम यही है। तूने ही उसे चुना है। इसलिए उसके सम्मान की रक्षा करने की ज़िम्मेदारी भी तेरी है। ज़िम्मेदारी ही नहीं धर्म है धर्म। एक मात्र धर्म। इसलिए तू यही कर। शहर की फिक्र जन प्रतिनिधि करेंगे। ना भी करें तो तुझे क्या। तू तेरा धर्म निभा। इसी मेँ तेरा कल्याण है और तेरी मुक्ति का मार्ग भी। क्योंकि भारत मेँ तेरा जन्म ही जन प्रतिनिधि की सेवा चाकरी के लिए हुआ है। अपने जन्म को सार्थक कर। ऐसा करने से शहर के सभी मार्ग तेरे लिए पहले से अधिक सुगम हो जाएंगे। और क्या! बताना, समझाना हमारा काम है। जन प्रतिनिधि का सम्मान बचना तेरा। ठीक। 

Tuesday, September 22, 2015

बरसाती पानी के अलावा कोई और भी है क्या !

श्रीगंगानगर। गंगानगर नामक इस शहर मेँ पानी के अलावा अगर कोई है और उसमें शर्म भी हो तो वह डूब मरे। चुल्लू भर पानी मेँ तो डूबने की कहावत भर है। उसमें डूबना संभव नहीं। डूबने  के लिए बरसाती पानी है। जिधर कम पड़ेगा उधर गड्ढे कमी पूरी कर देंगे। लेकिन ऐसा होगा नहीं। क्योंकि इधर ऐसा कोई रहता ही नहीं, जिसके अंदर शर्म नाम की कोई स्वाभिमानी वस्तु बची हो। थोड़ी बहुत भी नहीं। अजी, छटांक क्या, तोला मासा भी नहीं है। सब के सब अंदर बैठ कर उस बंदे को गाली निकालने वाले हैं, जिस तक उसकी पहुँच नहीं। यूं कहने को तो शहर भरा पूरा है। धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक सभी तरह के व्यक्तियों की भरमार है। हर वह सरकारी दफ्तर है जो होना चाहिए। अफसर भी हैं और एक से एक लाजवाब  जन प्रतिनिधि भी । परंतु अफसोस इस बात का है कि इन सब मेँ वह नहीं है जो एक इंसान मेँ होनी चाहिए। गैरत ! स्वाभिमान! आत्मसम्मान! शर्म! लिहाज! अपने शहर के लिए फिक्र। उसकी  भलाई की सोच। आवाज। आक्रोश। ताव। झाल। पानी के अंदर चलो तो उसमें से भी आवाज आ जाएगी। जैसे चलने वाले को कह रहा हो, संभल के, गिर मत जाना। किन्तु, क्या मजाल कि इस शहर के किसी कौने से कोई आवाज निकले। कोई चिल्लाइए कि ये गलत हो रहा है। कोई बोले, ये नहीं होना चाहिए। फिर इन आवाजों मेँ सम्मिलित हो कुछ और आवाज। स्वर। फिर जब सुर से सुर मिले तो आक्रोश पैदा हो। झाल आवे। ताव दिखे। बात फिर वही कि पहले एक आवाज तो सुनाई दे कहीं से। सरसराहट तो हो किसी घर से। गली मेँ। ऐसा हो नहीं रहा। आवाज क्या आनी है। खुसर फुसर भी नहीं होती दिखी कहीं। तीन दिन हो गए। बरसात ने पूरे शहर की सड़कों को जाम कर दिया। किधर सड़क का हिस्सा है और किधर गड्ढा, कोई नहीं जानता। कौन  कब किस सड़क पर रपट जाए, किसे पता। आज उस घर के निवासी बहुत भाग्यशाली हैं, जिसके घर के आगे बरसाती पानी नहीं है। वे भी किस्मत के धनी हैं, जिनकी गली मेँ आने जाने लायक सड़क है। वरना तो जिधर देखो उधर पानी का दरिया दिखाई देता है। गली हो या सड़क, सब की सब पानी से लबालब। केवल बरसाती पानी हो तो भी कोई बात नहीं। इसमें तो नालियों और घरों के गटरों का पानी भी मिल चुका है। जिस वजह से पानी के अंदर से गुजरना जैसे गटर मेँ से आवागमन करना। शहर की यह स्थिति है और किसी ने कोई बड़ा प्रयास किया हो ऐसा कहीं सुनने मेँ नहीं आया। जनता की आवाज तो है ही नहीं। बस केवल फेसबुक पर गुस्सा निकाल रही है। जनता भी किधर जाए! उसे कोई रास्ता नजर ही नहीं आ रहा। राधेश्याम गंगानगर को नकार दिया। कामिनी जिंदल अभी परिपक्व नहीं। कांग्रेस वाले बोलने क्यों लगे? नगर परिषद मेँ सभापति का होना ना होना एक समान है। उनको पता ही नहीं कि सभापति होता क्या है! अफसरों को इस शहर से लेना ही क्या है। जनता किसके पास जावे। किसे अपना दर्द सुनावे। जब जनता ही ऐसी है तो अफसरों का क्या दोष। इसलिए पड़े रहो घरों मेँ। सड़ते रहो गंदे पानी मेँ। होने दो अस्त व्यस्त कारोबार, पढ़ाई का बंटाधार। पानी जब निकलेगा तब निकल जाएगा। उसको कुछ नहीं तो मुझे क्या! दो लाइन पढ़ो—

मन ना भी हो तब भी मुस्कुराना पड़ता है 
सच्चे, झूठे रिश्तों को निभाना पड़ता है।

Monday, September 21, 2015

चुनाव लड़ चुके अग्रवालों से चेतना मंच ने मांगे आवेदन



श्रीगंगानगर। अग्रवाल राजनीतिक चेतना मंच अग्रवाल समाज के उन व्यक्तियों को सम्मानित करेगा जिन्होने  राजनीति मेँ सक्रिय रूप से भाग लेकर समाज मेँ राजनीतिक चेतना जागृत करने का काम किया। मंच के प्रेस नोट मेँ बताया गया है कि मंच इस सत्र मेँ श्रीगंगानगर के कॉलेजों मेँ  छात्र संघ का चुनाव लड़ने वालों को सम्मानित करेगा। इसके साथ साथ उन अग्रवालों को भी सम्मानित करेगा, जिन्होने 2104 मेँ श्रीगंगानगर नगर परिषद का चुनाव लड़ा था। चुनाव लड़ने वालों से अपना  विवरण देने का आग्रह मंच ने किया है । प्रेस नोट के अनुसार चुनाव लड़ चुके अग्रवाल व्यक्तियों को चुनाव लड़ने का प्रमाण, अपनी फोटो, फोन नंबर और पते सहित जी डी टायर, 188 सुखाडिया शॉपिंग सेंटर या  फॅमिली साइबर, 87 पी ब्लॉक, पायल थियेटर रोड श्रीगंगानगर पर देना होगा। इनको महाराजा महाराजा अग्रसेन जयंती पर एक समारोह मेँ सम्मानित किया जाएगा। 

Saturday, September 19, 2015

अरे! कोई तो नजर उतारो अपने श्रीगंगानगर की

 श्रीगंगानगर। श्रीगंगानगर। अपने शहर के नाम का श्री तो कब का ही इधर उधर हो चुका। अब तो गंगानगर से महाराजा गंगा सिंह जी का नाम भी हटा दिया जाए तो ठीक रहेगा। क्योंकि जिस व्यक्ति की आन-बान-शान सात समंदर पार तक थी, उसके नाम पर बसे शहर मेँ वह हो रहा है, जिसकी उम्मीद किसी ने भी नहीं की होगी। जो व्यवस्था है, उससे हर कोई हैरान, परेशान है। किन्तु कोई करे भी क्या।  यह सब हमारी ही बनाई हुई है। धोरों की मिट्टी गिर गई इस पर। हालात इतने बुरे और हाथ से निकल गए कि क्या कहें? दबंग जन प्रतिनिधि को अपना सम्मान बचाने के लिए पूर्व जन प्रतिनिधियों के साथ संघर्ष समिति बनानी पड़ती है। तो फिर जनता अपने सम्मान के लिए किस जन प्रतिनिधि के पास जाएगी? जो खुद अपने सम्मान के लिए भागदौड़ कर रहा हो, उससे जनता क्या आश रखे? जिन अमीर, व्यापारिक परिवारों को जनता मेँ आदर्श पेश करना चाहिए, उनकी मर्यादा, शर्म, संस्कार सड़कों पर तमाशा बन चुके हैं। जो फैसला गुप चुप होने चाहिए, वह सड़क पर करवाने की कोशिश हुई। कलक्टर कहता है कि अखबार मत पढ़ो। इसके बावजूद मीडिया मेँ कोई हलचल नहीं। उनकी फोटो, खबर मीडिया मेँ पहले की तरह ही देखने को मिलती हैं। बड़े अखबार का एक मालिक, संपादक लोकायुक्त के समक्ष इन शब्दों मेँ बेबसी प्रकट करता है कि कुछ भी किसी के बारे मेँ छाप लो कि फर्क नहीं पड़ता। एक मालिक संपादक ब्रॉड बैंड ठीक से ना चलने  की खबर अखबार मेँ छाप, फेस बुक पर उसे ठीक करने संबंधी पोस्ट डालता है। वह भी सहज रूप से। एक टीवी रिपोर्टर अपने चैनल हैड की फोटो के साथ फेसबुक पर अपने आपको उनका सेवक कहता है। ये सब दृश्य इस शहर की कमजोरी दिखा रहे हैं। बता रहे हैं कि कितना बेबस हो गया ये शहर। अपना श्रीगंगानगर ऐसा तो नहीं था। बेशक यह चंडीगढ़ का बच्चा नहीं बन सका, फिर भी जैसा था, वैसा बहुत ही जानदार, शानदार, दमदार था। सबका उसके काम और पद के अनुसार रुतबा था। आवाज थी। मर्यादा और संस्कार थे। डर बेशक ना रहा हो, लेकिन शर्म जरूर थी। आज तो जैसे बेड़ा गर्क हो गया। जन प्रतिनधि का सम्मान खतरे मेँ है। मीडिया की शक्ति क्षीण हो गई है। जिन परिवारों से कुछ सीखने की जरूरत समझी जाती थी, वे खुद बहुत  कुछ सीखने के काबिल दिखाई पड़ते हैं। अफसरशाही  हावी है। जब नामी हस्तियां इस हाल मेँ हैं तो मुझ जैसे किसी आम आदमी की बिसात ही क्या है! वह तो किसी गिनती मेँ ही नहीं। उसे तो एसपी, डीएम क्या एक दबंग ही ऐसा सबक सिखाए कि नगर के दूसरे आम आदमी भी घास का तिनका मुंह मेँ लेकर फरियाद करते नजर आएं। ऐसा आभास होता है जैसे किसी की नजर लग गई इस अलबेले  शहर को। शायद इसी वजह से इसकी इतनी दुर्गति हो रही है।  जिधर हाथ रख दो उधर से ही आह! की आवाज सुनाई देती है। जिससे चाहे बात कर लो, यही कहता है कि शहर की ऐसी हालत इससे पहले कभी नहीं हुई थी। तो फिर विचार करने की जरूरत है। चिंतन तो होना ही चाहिए कि ऐसा कैसे हुआ? जब तक चिंतन ना तो तो नजर उतरवाने का इंतजाम ही कर लो । कोई कहीं नीबू-मिर्च टांग दे। कोई रात को मिर्च आग मेँ जलाए । कोई बत्ती जला दे। नून राई कर दे। किसी का  कोई टोटका तो असर करेगा ही। बाकी राम जाने। 

Sunday, September 13, 2015

अग्रवाल राजनीतिक चेतना मंच का गठन, जिंदल अध्यक्ष, गोयल महा सचिव



श्रीगंगानगर। अग्रवाल समाज मेँ राजनीतिक चेतना जागृत करने के उद्देश्य से अग्रवाल राजनीतिक चेतना मंच का गठन किया गया है। यह गठन सुखाडिया शॉपिंग सेंटर मेँ स्थित जी डी टायर नामक  संस्थान पर इंजी बंशीधर जिंदल की अध्यक्षता मेँ हुई बैठक मेँ किया गया। मंच के विधिवत रूप से गठन करते हुए सर्व सम्मति से बंशीधर जिंदल को अध्यक्ष, प्रभाती राम अग्रवाल, गुरदीप जिंदल को उपाध्यक्ष, गोविंद गोयल को महासचिव, रवि सरावगी और अजय गर्ग को सचिव तथा सुमित गर्ग को कोषाध्यक्ष चुना गया। 14 व्यक्तियों को कार्यकारिणी मेँ सदस्य के रूप मेँ शामिल किया गया। मंच के गठन से पूर्व गोविंद गोयल ने मंच की आवश्यकता और उसके उद्देश्य को जिक्र करते हुए सभी से विचार विमर्श करने का आग्रह किया। रवि सरावगी, प्रभाती राम अग्रवाल, मनीष बंसल ने विचार व्यक्त करते हुए इसे सराहनीय कदम बताया। सभी ने एक स्वर मेँ हर संभव सहयोग का आश्वासन दिया। अध्यक्ष बंशीधर जिंदल ने महाराजा अग्रसेन जयंती के मौके पर 2014 मेँ हुए नगर परिषद और इस साल हुए छात्र संघ चुनाव लड़ने वाले अग्रवालों को सम्मानित करने का प्रस्ताव रखा। जिसे सर्व सम्मति से पास किया गया। श्री जिंदल ने चुनाव लड़ने वालों से आग्रह किया कि वे मंच की कार्यकारिणी के सदस्यों से इस बाबत संपर्क कर अपने नाम लिखा सकते हैं। उन्होने कहा कि प्रोग्राम की तिथि और स्थान की घोषणा जल्दी ही की जाएगी। उन्होने सबकी सहमति से ये भी कहा कि काम करने के इच्छुक कई अन्य व्यक्तियों को भी कार्यकारिणी मेँ शामिल किया जा सकता है। बैठक मेँ मनीष बंसल, प्रमोद जिंदल, रजनीश गोयल, राजेश जिंदल, योगेश जिंदल, मनीष अग्रवाल, स्वाति गोयल, दिनेश गोयल, राजेन्द्र गुप्ता, रमेश कुमार उपस्थित थे। इनके अतिरिक्त शोभित लीला, पवन जैन ने फोन पर बैठक मेँ उपस्थिति दर्ज करवाई। बैठक के बाद नटवर मित्तल, संजय सिंगल तथा प्रदीप गर्ग ने भी मंच से जुड़ इस मंच के उद्देश्य को आगे बढ़ाने का निर्णय लिया। 

Friday, September 11, 2015

प्राइवेट डॉक्टर्स की तो कोई खबर बनती ही नहीं

श्रीगंगानगर। फुफेरे भाई ने रोक लिया और बोला, तुम अपनी ज़िम्मेदारी ठीक से नहीं निभा रहे। मैं हैरान! कैसी ज़िम्मेदारी? पारिवारिक या सामाजिक? मैंने पूछा। अरे नहीं। पत्रकारिता की, अखबार की, उसने कहा। पूरा मीडिया सरकारी हॉस्पिटल की पीछे पड़ा रहता है। छोटी से छोटी बात सुर्खियां बन जाती है। जबकि प्राइवेट होस्पिटल्स के बारे मेँ कोई कुछ नहीं बोलता। जुकाम दिखाने जाओ तो एक हजार रुपए खत्म। टेस्ट करवाते हैं। कुछ नहीं निकलता। फिर वही टेस्ट। एक्सरे करवाएंगे। ठीक से उसे देखेंगे भी नहीं कि टीएमटी करवाने को कहेंगे। कई मिनट तक उसने अपने मन की बात कही। मैंने ये कह कर बात को विश्राम दिया कि पब्लिक भी तो नहीं बोलती। कहीं से कोई विरोध के स्वर तो उठें। तभी मीडिया आगे बढ़े।  हालांकि बातचीत तो समाप्त हो गई, लेकिन उसकी बात मेँ दम था। सोचा, खूब सोचा। परंतु प्रश्न ये कि लिखा क्या जाए? क्या ये खबर लिखें  कि डॉक्टर्स ने अपनी फीस बढ़ा दी। या फिर ये कि हर प्रकार की जांच के भी अब पहले से अधिक रुपए लगेंगे। पेट दर्द के लिए छोटे से छोटा अल्ट्रासाउंड दर्द को और बढ़ा देगा, क्योंकि बड़ी राशि देनी पड़ती है। टीएमटी करवाने मेँ सांस चढ़ जाएगा। ईसीजी का चार्ज धड़कन बढ़ा देगा। कमरों का किराया होटल की तरह से है। जैसी सुविधा वैसा कमरा। महिलाओं की सेवा भी मेल नर्स ही करते हैं। लेकिन जवाब फिर भी नहीं मिला। प्रश्न फिर वहीं का वहीं कि खबर आखिर शुरू कहां से हो? हो किस बात पर। ये न्यूज भी कैसे बने कि पहले प्राइवेट हॉस्पिटल मेँ मेडिकल की दुकान किसी और की होती थी। मोटे किराए पर। फिर डॉक्टर पार्टनरशिप करने लगे। अब खुद ही मेडिकल की दुकान खोल लेते हैं। दवाएं भी अपनी बनवाते हैं। जो कहीं और से मिलती ही नहीं। लेनी ही पड़ेगी। चाहे जो भी कीमत हो। यूं यो डॉक्टर्स को दिखाने से लेकर ठीक होने तक, हर स्टेज पर खबर है। लेकिन बनती नहीं। आजकल तो इसी से संबन्धित अनछुई खबर भी है। वो ये कि अब तो कई संस्थाएं  भी नए नए डॉक्टर्स को लॉन्च करती  हैं। उनके लिए कैंप लगते  हैं। कैंसर की जांच वैन आपके घर तक लाएँगे। साथ मेँ अपने ही भाई, भतीजे, सगे संबंधी किसी कैंसर विशेषज्ञ का पता भी बता देंगे। और क्या चाहिए आपको, बोलो।  समाज का भला करने वाली इन संस्थाओं की खबर क्यूं लिखूँ, जो डॉक्टर्स की मार्केटिंग करती हैं। उस सज्जन, सर्जन के बारे मेँ लिख कर मैं ही बुरा क्यूँ कहलाऊं जिसकी एग्जामिनेशन  टेबल पर मर्यादा का हरा पर्दा तक नहीं। जिस कारण पिता को बेटी के वे अंग देखने पड़ते हैं, जिसे कोई पिता नहीं देखना चाहता। डॉक्टर को तो बीमारी के इलाज हेतु एग्जामिन करने ही पड़ेंगे । सज्जन, सर्जन अपने युवा मेल नर्स को भी बाहर जाने के लिए नहीं कहता। शहर मेँ रहना है भाई! इसलिए ये खबर भी नहीं बन सकती। तो फिर क्या खबर बने! ये बात तो पुरानी हो गई कि रात को कोई डॉक्टर किसी रोगी को नहीं देखता। इसमें शिकायत की बात नहीं। ना ही ये कोई खबर है। मर्जी है डॉक्टर की। जब इच्छा होगी रोगी को देखेगा। नहीं इच्छा, नहीं देखता। तो फिर खबर क्या हो? फीस बढ़ाने की बात हो गई। टेस्टिंग भी ऊपर हो गया। कमरे और दवाइयों की भी चर्चा  हो गई। लेकिन कोई खबर तो नहीं बनी ना। हो भी तो लिखेंगे नहीं । क्योंकि हमें भी तो जाना होता है इनके पास। सामाजिक, आर्थिक रिश्ते हैं हमारे इनसे। अब आम जनता के लिए मीडिया उनसे अपने रिश्ते तो नहीं बिगाड़ सकता,  जिसकी जरूरत कभी भी पड़ सकती है। इसलिए प्राइवेट होस्पिटल्स वालों के बारे मेँ खबर लिखना कैंसल। ऐसी खबरों के लिए तो सरकारी हॉस्पिटल है । कुछ भी लिखो। कौन रोकता है। चूंकि उधर भीड़ है, व्यवस्था नहीं। विश्वास भी कम ही है। सरकार पर विश्वास कम ही होता है। इसलिए हम जैसों को तो प्राइवेट मेँ आना ही होगा, जब इधर आना है तो कोई खबर होकर भी नहीं हो सकती है। नमक का हक तो अदा करना ही पड़ता है। इतनी मर्यादा तो मीडिया मेँ है ही अभी। वैसे भी कहीं आईएमए ने मेरे खिलाफ निंदा प्रस्ताव पारित कर मेरे और मेरे परिवार का इलाज ना करने का निर्णय कर लिया तो मीडिया, वीडिया सब धरा रह जाएगा। इसलिए सॉरी भाई जान। प्राइवेट डॉक्टर्स के बारे मेँ मैं तो कुछ नहीं लिख सकता ।  दो लाइन पढ़ो—

हाथ से ये 
वक्त क्या दूर गया , 
मेरा आइना 
मेरा ही चेहरा भूल गया।

Tuesday, September 8, 2015

तीन विवाहित बेटों वाले परिवार मेँ केवल एक टीवी !


श्रीगंगानगर। हमारे आस पास बहुत कुछ अच्छा होता है। संस्कारों, पारिवारिक प्रबंधन और  प्रेम के अनेक  उदाहरणों से भी हम मेँ से कोई ना कोई  रोज नहीं तो कभी कभार तो रूबरू होता ही है। कुछ प्रेरणादायी बात भी हमारी आँखों के सामने आ जाती हैं, गाहे बगाहे । परंतु ये सब सामान्य रूप से होता लगता और दिखता है।  इसलिए इसमें हमें कुछ खास दिखाई  नहीं देता या हम इसे रूटीन जान कोई विशेष तवज्जो नहीं देते। मगर इन सब पर कभी कोई चिंतन मनन करे तो लगेगा कि जो सामान्य है, वही तो है बहुत अधिक खास, विशेष और समाज को प्रेरणा देने वाला । बात आगे बढ़ाते हैं। क्या आज के इस दौर मेँ कोई ये सोच सकता है कि कहीं  संयुक्त परिवार होगा? चलो संयुक्त परिवार तो मिल जाएगा। किन्तु क्या ये संभव है कि उस परिवार मेँ टीवी केवल एक ही हो। वह भी तब जब परिवार के सभी लड़के विवाहित हैं। उनके बच्चे हैं। सबके अलग कमरे हैं। सुनने, पढ़ने मेँ बेशक विश्वास ना हो। कोई बताए तो भी यकीन करना मुश्किल हो। लेकिन ये सत्य है। आज के दिन, पूरी तरह सच। चाहे तो कोई देख ले जाकर उस परिवार मेँ, जिसका जिक्र किया जा रहा है। एल ब्लॉक हनुमान मंदिर के पास एक परिवार है। तीन लड़के हैं। तीनों विवाहित। तीनों के सात- आठ बच्चे हैं। कुल मिला कर एक दर्जन से अधिक व्यक्तियों का परिवार। टीवी केवल एक। जो लॉबी मेँ लगा हुआ है। किसी लड़के के कमरे मेँ अलग से टीवी नहीं है। जिसने टीवी देखना है, उसे यहीं देखना है। ऐसा नहीं है कि बच्चों मेँ आपसी किच किच ना होती हो। बिलकुल होती है। टीवी एक जो है। मगर कुछ क्षण मेँ सब ठीक। चचेरे भाई बहिन आपस मेँ किच किच नहीं करेंगे तो उनमें आपसी समझ कैसे आएगी और अपनापन कैसे पनपेगा एक दूसरे के प्रति। फिर बच्चों की किच किच की भी क्या चर्चा। पल मेँ झगड़ा, दूजे पल प्यार। उसके बाद तो याद ही नहीं रहता कि किच किच हुई किस बात पर थी। इतना ही नहीं कोई बेटा-बहू भोजन अपने कमरे मेँ नहीं करता। सबको भोजन लॉबी मेँ करना है। कमरों मेँ भोजन तभी जाएगा, जब कोई मजबूरी हो। कोई बच्चा बीमार है। किसी को स्कूल का काम करवाना है और उसे टीवी से भी दूर भी रखना है। हर कोई इस बात को समझ सकता है कि भोजन एक साथ ना भी किया जाए, पास पास बैठ कर तो किया ही जाएगा।  तब आपसी संवाद कितना बेहतर होगा! संवाद है तो कोई बड़ा झंझट नहीं होता परिवार मेँ। सौ प्रकार की सलाह, विचार विमर्श हो जाता है, साथ बैठने से। थोड़ी खिट पिट होती भी है तो बात चीत से गायब। वरना तो रात को काम से आए और सब के सब चले गए अपने अपने कमरे मेँ भोजन और बच्चे लेकर। कौन किस से संवाद करेगा और किस से कैसे सलाह होगी! सब के सब अकेले। जब कोई एक दूसरे के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करता तो फिर सबको अकेला ही रहना पड़ता है। यह दस्तूर है। अब इस व्यवस्था को कोई हिटलर शाही कहे या सास को ललिता पवार की संज्ञा दे तो उसकी मर्जी।  ये व्यक्ति की नजर और सोच पर निर्भर है कि वह इसमें क्या, किस रूप मेँ  देखता है?  परंतु इसमें कोई शक नहीं कि आज के दौर मेँ ऐसे शानदार, संस्कारी, गरिमामय पारिवारिक प्रबंधन के बारे मेँ सोचा भी नहीं जा सकता। इन शब्दों मेँ जिस परिवार का जिक्र किया गया है, वह आर्थिक रूप से सम्पन्न है। ये जिक्र  उनकी अप्रोच, धन का  नहीं बल्कि  चर्चा उस नई लीक की है, जो उन्होने बनाई है। यह परिवार कोई अंजाना नहीं। सबका नहीं तो अधिकांश का जाना पहचाना है। ये परिवार है चेम्बर ऑफ कॉमर्स के अध्यक्ष बी डी जिंदल का । इन शब्दों पर भी गौर करो---
नए दौर मेँ संस्कृति और संस्कारों का बंटाधार हो गया,चाचा चाचू, मामा मामू, जीजा जीजू और बाप यार हो गया। 

Sunday, September 6, 2015

मदन अरोड़ा ने की दिल की बात


श्रीगंगानगर, 6 सितंबर। साहित्य और लेखन में निरंतरता अत्यंत आवश्यक है। पढऩा भी और लिखना भी। इनमें से एक भी अगर छूट गया तो लेखक के पिछडऩे की आशंका रहती है। मैं भी अगर इस मामले में ढिलाई न करता तो आज स्थिति कुछ और होती। यह स्वीकारोक्ति है साहित्यकार मदन अरोड़ा की। वे रविवार को यहां श्री आत्मवल्लभ जैन पब्लिक स्कूल में सृजन सेवा संस्थान की ओर से आयोजित कार्यक्रम लेखक से मिलिएमें श्रोताओं से रूबरू थे। उन्होंने कहा कि  लघुकथा लेखन की ओर मुड़े तथा उनके इस प्रयास को स्वीकार तो किया ही गया, देश भर में सराहना भी मिली। कविता की जापानी विधा हाइकू भी राजस्थान में सबसे पहले उन्होंने ही लिखने प्रारंभ किए परंतु बाद में स्थितियां ऐसी बनी कि वे निरंतरता नहीं रख पाए और इन विधाओं की पुस्तकें प्रकाशित नहीं करवा पाए। इस मौके पर उन्होने रचनाएँ प्रस्तुत की। कार्यक्रम की अध्यक्षता वरिष्ठ पत्रकार गोविंद गोयल ने की। उन्होंने अरोड़ा की रचनाओं और उनके जीवन संघर्ष को सराहा और माना कि संवेदनशीलता ही रचनाओं को पाठक के हृदय से जोड़ती हैं। उन्होने मदन अरोड़ा को कुछ सुझाव भी दिये। संस्थान के अध्यक्ष डॉ. कृष्णकुमार  आशुने मदन अरोड़ा परिचय देते हुए बताया कि की कुसुम और बूंद भी सागर भी शीर्षक से दो पुस्तकें भी प्रकाशित हो चुकी हैं। कार्यक्रम में वरिष्ठ साहित्यकार मोहन आलोक और  डॉ. विद्यासागर शर्मा ने भी संबोधित किया।


Friday, September 4, 2015

जागरूक नागरिक का गृह मंत्री को पत्र, हेलमेट को बताया अव्यावहारिक



श्रीगंगानगर। नगर के जागरूक नागरिक रवि सरावगी ने राजस्थान के गृह मंत्री को पत्र लिख हैलमेट की  अनिवार्यता संबंधी आदेश को  अव्यावहारिक बताया है। श्री सरावगी ने अपने पत्र मेँ गृह मंत्री को लिखा है कि  क्या इसके लिये छोटे शहरों और कस्बों की सड़कों की हालत और उनकी भौगोलिक स्थिती का अध्ययन किया गया है??  गंगानगर जैसे शहर जहां प्रति सौ फुट के बाद चौराहा है, बीस से अधिक की स्पीड पर वाहन चलाना मुश्किल है, और सड़कों में गड्ढे नहीं बल्कि गड्ढों में सड़कें हैं, एैसे में हैलमेट सुरक्षा नहीं बल्कि बोझ है श्री सरावगी के अनुसार हेलमेट अनिवार्य करने का आदेश देना पहले से ही आपकी सरकार द्वारा उत्पीड़ित गंगानगर की जनता के ज़ख्मों पर नमक छिड़कने जैसा है। श्री सरावगी का कहना है कि  यदि सुधार करना है तो. शहरी क्षेत्र में तेज दूधिया लाईटें लगाकर हाईबीम पर चलने वाली गाड़ियों के चालान काटना, ओवर लोडेड ट्रैक्टर ट्रालियों, ट्रकों, थ्रीव्हीलरों को सीज़ करने,.शहरी क्षेत्र में बड़े साईज की स्कूली बसों का संचालन बंद करने, अवैध रूप से रात्रिकाल में लकड़ी का परिवहन करने वाले ऊंटगाडा से प्रतिवर्ष कितने लोग मरते हैं उन पर बैन लगाने , और साथ ही यह सर्वे करवाने का आग्रह किया है  कि शहरों में हैड इंज़री से कितने और बसों ट्रकों और ट्रैक्टर ट्रालियों के नीचे दबकर कितने लोग मरे हैं सरावगी के अनुसार इस सर्वे के बाद ही श्रीगंगानगर मेँ हेलमेट की अनिवार्यता के आदेश देने चाहिए। 

Thursday, September 3, 2015

अब और विकास की जरूरत नहीं है गंगानगर को


गोविंद गोयल
श्रीगंगानगर। महाराजा गंगासिंह की नगरी गंगानगर । अपने आप मेँ मस्त शहर। शरीफ नागरिकों का शहर। बेफिक्र लोगों का शहर। अफसर इधर की भाषा नहीं जानते। वे किसी नेता की बात नहीं मानते। विपक्षी दलों के नेताओं को ताव नहीं आता। आम आदमी किसी मुद्दे पर किसी के साथ नहीं आता । क्योंकि शरीफ लोग गांधी जी के पद चिन्हों पर चलते हैं। बुरा देखना नहीं। बुरा बोलना नहीं और बुरा सुनना नहीं। जय राम जी की। होता रहेजो होता हैहमें क्या मतलबा। हम इस गली की बजाए उस सड़क से निकल लेंगे। घर के सामने की सड़क साफ हो तो पूरा नगर नरक बनेहमें क्या?ट्रैफिक पुलिस वाला चौराहे पर ट्रैफिक व्यवस्थित करने की बजाएइधर उधर खड़ा रह बाइक वालों को हेलमेट पहनाता है। दुकानदार पार्किंग लाइन के अंदर सामान रख ग्राहक बुलाता है। करोड़ों रुपए खर्च हो गएसीवरेज नहीं बनता। ओवरब्रिज हमने बनने नहीं देना। ए माइनर के किनारे की सड़क बने तो नाक कटती है। काम शुरू भी नहीं होता कि शरीफ व्यक्ति उसमें टांग अड़ाने के लिए आ जाते हैं। फिर भी कोई उम्मीद करें कि इस शहर को विकास के लिए फंड मिले। अनुदान दिया जाए। इसका विकास किया जाए। मेडिकल कॉलेज बने। एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी हो। जनाबजो  है उसकी तो सार संभाल होती नहींऔर मिल जाए। जो सरकारी हैवह हमारी हैकी सोच रखने वाले इस नगर के शरीफ लोगों की शराफत की जितनी जय जय कार की जाए कम है। ऐसी गांधी वादी सोच वाले शरीफ लोगों के इस नगर को कुछ नहीं मिलना चाहिए। सरकार इधर से आँख बंद कर ले। राजनैतिक कृपा तो है ही। विधायकसभापति दोनों ही बीजेपी के नहीं है। दोनों सत्तारूढ़ पार्टी के होते तो सौ टंटे होते। विकास के लिए पैसे की उम्मीद होती। योजना बनती। अड़ंगे लगते। पार्षदों की नई नई उम्मीदें जवां होती। अब किस्सा समाप्त। ना विधायक को मतलब और ना सभापति को। दोनों की मौज। कुछ नहीं करना। कोई कुछ भी कहेबीजेपी को किसी भी सूरत मेँ सभापति को पार्टी मेँ शामिल नहीं करना चाहिए। पार्टी मेँ शामिल होते ही फंड की मांग करेंगे। विकास की उम्मीद जगेगी। बाद मेँ टिकट की लाइन मेँ लगेगा। नित नए क्लेश । आंधा न्योतोदो बुलाओ। ऐसा करने की जरूरत ही नहीं। जो जहां हैउधर रहे। जिसको पता नहींसभापति का मतलब क्या होता हैउसको पार्टी मेँ लेकर करना भी क्या! जिस शहर की जनता को कुछ चाहिए ही नहींउसे देकर करना भी क्या! इसलिए सरकार को तो गंगानगर के संबंध मेँ टेंशन रखने की अब जरूरत नहीं। क्योंकि सब के सब खाते पीते नागरिक हैं। इनको कुछ चाहिए ही नहीं। इनके नगर मेँ जो हैवो भी अधिक ही है। यही वजह है कि जो है उसकी ठीक से देखभाल नहीं हो पाती। जो अफसर हैंवे भी स्टेट के सबसे काबिल हैं। इस कारण उनके प्रति भी किसी को कोई शिकायत होने का सवाल ही पैदा नहीं होता। मोदी जी बेकार मेँ स्मार्ट सिटीस्मार्ट सिटी की रट लगा रहे हैं। अरेदेश मेँ सिटी स्मार्ट नहीं स्मार्ट नागरिक होने चाहिए। और यह  स्मार्टनेस आती है आत्मसंतुष्टि से। जो केवल गंगानगर के नागरिकों मेँ है। बेशकदेश भर मेँ सर्वे करवा लोऐसे संतोषी जीव कहीं नहीं मिलेंगे। कितने भी अत्याचार कर लोपैसे देंगेहाथ जोड़ेंगे , घर बैठ जाएंगे। किसी को कानों कान खबर तक नहीं होने देंगे। दो लाइन पढ़ो
बहुत अच्छा है शहर
लोग भी सब शरीफ हैं इधर के,
फिर भी तू इनकी
नजरों से बच बचा के आया कर।