Thursday, February 27, 2014

खुशियां छोटी हो गई और पैकेज बहुत बड़े बड़े



श्रीगंगानगर-पहला  सीन-सुबह सुबह एक परिचित मिल गए। बाइक  पर आगे लगभग डेढ़ साल का क्यूट  बेबी था। साथ में  उसके पहनने,खाने,पीने और खेलने के सामान का बैग। दुआ सलाम के बाद बोला,बच्चे को क्रैच छोड़ने जा रहा हूं । बीवी नौकरी पर जाएगी। मुझे भी जाना है। क्या करें! अकेले से आजकल घर ही चल सकता है और कुछ नहीं। बीवी  ड्यूटी से आएगी तो इसे लेती  आएगी। दूसरा सीन-बड़े पैलेस में  बड़ों की शादी का बड़ा समारोह। पीठ की साइड में दो व्यक्ति बात कर रहे थे। एक, मेरा बेटा फलां कंपनी में है और इतने लाख का पैकेज ले रहा है। दूसरे ने अपने बेटे की कंपनी और पैकेज बताया। दोनों खुश। कुछ क्षण यही पैकेज की बात करते रहे। फिर उनकी आवाज में दर्द आने लगा। दोनों में से कोई कहा रहा था,बेटे को बिलकुल भी समय नहीं मिलता। छुट्टी के दिन भी फुरसत नहीं। ऑफिस जाने का समय तो है लेकिन आने का नहीं। दूसरे ने उसकी हां में हां मिलाई। कुछ क्षण पहले जो पैकेज की बात कर खुश हो रहे थे वे अचानक गंभीर हो गए। जबकि ना तो उनके बच्चों के पैकेज कम हुए थे और ना ही ऐसी कोई उम्मीद थी। लेकिन मन की पीड़ा कब तक रोकी जाती। जब एक ही किश्ती में सवार थे तो बात होनी ही थी, पैकेज की भी जिंदगी की भी। ये बेशक दो सीन हों लेकिन ऐसे दृश्यों की कोई कमी  नहीं है इस शहर में। बच्चे की तरक्की की खुशी अपनी जगह और उसकी जुदाई की पीड़ा अपनी जगह। दोनों को मन में आने से कोई नहीं रोक सकता। जिस स्टेज पर ऐसे बच्चे पहुँच गए वे इस शहर से तो गए ही साथ साथ गए अपने घर –परिवार,रिश्तेदारों और परिचितों से। क्योंकि उनके लिए इधर कोई स्टेटस नहीं है। उनके लायक कोई काम नहीं। कोई कंपनी नहीं जो उनको लाखों के पैकेज दे सके। जब इनका आना इधर होगा ही नहीं तो कौन रिश्तेदार,मित्र इनको याद रखेगा। धीरे धीरे सामाजिक रिश्ते भी समाप्त होने ही हैं। ऐसे पैकेज वाले बच्चों को छुट्टी मिलेगी तभी तो ये अपने दादा,नाना,दोस्त के परिवार में होने वाले विभिन्न समारोह में आ सकेंगे। आएंगे तभी तो रिश्ते और समाजिकता का नवीनीकरण होगा। वरना कौन उनको जानेगा और कौन पहचानेगा। लेता होगा किसी का बच्चा लाखों का पैकेज ! किसी को इससे क्या ! माता-पिता के पास पैसा तो लाखों करोड़ों में आ गया,मगर वह उनकी आंखों  से दूर हो  गया जिसकी खुशी और आनंद के लिए उन्होने दिन रात एक की। ये अपने घर,समाज,गली,मोहल्ले को छोड़ कर जा नहीं सकते। इनमें इनकी रूह बसती है।इनके संबंध इधर हैं। भाई चारा है। बच्चे इधर आ नहीं सकते। बुढ़ापे को अकेला,खामोश होना ही है। जब बच्चों को हमारी जरूरत थी तब हमने उनको अलग कर दिया । जब हमें उनकी आवश्यकता होगी  तो वे आ नहीं सकेंगे। जब सबसे अधिक बच्चों की जरूरत होती है तब अकेलापन! वह भी सब कुछ होते हुए। यही विडम्बना है इस पैकेज की। दो लाइन पढ़ो—मेरी तन्हाई  को वो यूं तोड़ गया, मेरे पास अपने रिश्ते के निशां  छोड़ गया। 

Friday, February 14, 2014

प्यार को मैगी मत बनाओ

प्यार को मैगी मत बनाओ
श्रीगंगानगर। प्यार, प्रीत, स्नेह, मोहब्बत दो मिनट में तैयार होने वाली मैगी नहीं है। यह तो वो बाजरे की खिचड़ी है जो धीमी-धीमी आंच पर सीजती है तभी खाने वाले और बनाने वाले को तृप्ति होती है। भूख बेशक मिट जाए लेकिन चाह नहीं मिटती। इस निगोड़े वेलेंटाइन डे ने सात्विक ,गरिमापूर्ण और मर्यादित प्रेम को मात्र जवां होते या हो चुके लड़का-लड़की के प्रेम में बांध दिया। इस अज्ञानी वेलेंटाइन डे को इनके अलावा और कोई दूसरा प्यार ना तो दिखाई देता है और ना उसमें इस प्यार को महसूस करने की क्षमता है। केवल लड़का -लड़की के मैगी स्टाइल प्यार को ही प्यार समझने वाले या तो ये जानते ही नहीं कि प्यार इससे भी बहुत आगे है या फिर उन्होंने यह जानने की कोशिश ही नहीं की प्यार तो इतना आगे है कि इसके अन्दर डूब जाने वाले व्यक्ति के लिए दुनिया अलौकिक हो जाती है। अलबेली बन जाती है। प्रीत से सराबोर व्यक्ति सहजता और सरलता की ओर बढ़ता है। घुंघरू होते तो उसके पांव में हैं और नृत्य उसका मन करता रहता है, हर क्षण। उसकी आखों में मस्ती दिखाई देती है। सबको अपने प्रेम में समाहित कर देने की चाहत नजर आती है। उसकी आंख को हर कोई अपना दिखाई देता है। जुबां पर मिठास और गुनगुनाहट रहती है। झूमता रहता है, गाता रहता है। कोई साथ है तब भी कोई फ्रिक नहीं नहीं है तब भी कोई चिन्ता नहीं। हर वक्त प्रेम के सुरूर में वह मदमस्त रहता है। लेकिन कितने अफसोस की बात है कि वेलेंटाइन डे ने प्यार को बाजार बना दिया। जो मन के अन्दर, आत्मा में, आखों में छिपाने की अधिक है दिखाने की कम, उसे सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित करने को मजबूर कर दिया। यह मोहब्बत नहीं बाजारूपन है। यह प्रीत नहीं, प्रीत का कारोबार है। स्नेह नहीं, स्नेह के रूपमें उपहारों की अदला-बदली है। इनको सुदामा की भक्ति में कृष्ण के लिए छिपा दोस्ती का प्यार दिखाई नहीं दे सकता। इनको यह भी याद नहीं होगा कि कभी किसी करमावती ने एक मुसलमान शासक को राखी भेजी और उस शासक ने भाई-बहिन के प्यार की एक नई परिभाषा लिखी। श्रवण कुमार का अपने माता-पिता के प्रति प्यार किसी वेलेंटाइन डे का मोहताज नहीं है। मां-बाप के बीमार होने की खबर सुन ससुराल से दौड़ी चली आने वाली लड़कियां वेलेंटाइन डे के किस्से पढ़कर बड़ी नहीं हुई थी। कृष्ण और राधा के प्रेम के समय तो इस कारोबारी वेलेंटाइन डे का अता-पता नहीं था। रावण ने कौनसा वेलेंटाइन डे पाठ पढ़ा था जो उसने अपनी बहिन सरूपनखा के लिए अपना सर्वस्य निछावर कर दिया। उर्मिला का लक्ष्मण के प्रति प्यार वेलेंटाइन डे पर निर्भर नहीं था। ये चंद उदाहरण वो हैं, जिन्होंने प्यार के रूप में रिश्तों के नए आयाम दिए। बहिन का भाई के प्रति प्यार और बाप का बेटी के प्रति प्यार बहुत बड़ा होता है। समाज में कौनसा ऐसा रिश्ता है जो प्यार के बिना एक क्षण के लिए भी कायम रह सके । परन्तु हमने कारोबार के लालच में प्यार, मोहब्बत, प्रीत, इश्क जैसे शब्दों को बहुत छोटा बना दिया जबकि ये समन्दर से भी अधिक विशाल है। इसकी गहराई भी समन्दर की तरह नापी नहीं जा सकती थी। बस, महसूस की जा सकती है और महसूस वही कर सकता है जिस के दिल में प्यार, प्रीत, स्नेह और मोहब्बत बसी हो।

Wednesday, February 5, 2014

सदियों पुराने विज्ञान पर भारी पड़ा क्रिकेट


श्रीगंगानगर-सदियों से दुनिया की तरक्की में योगदान दे रहा विज्ञान आज क्रिकेट के सामने छोटा पड़ गया। हार गया विज्ञान क्रिकेट से। ऐसे भी कह सकते हैं कि मीडिया ने विज्ञान को क्रिकेट से हरा दिया। क्योंकि मीडिया ने उसे विज्ञान की  तुलना में अधिक महत्व दिया। उस विज्ञान के जिसका तरक्की में सबसे अधिक योगदान होता है। मीडिया के  वर्तमान आधुनिक स्वरूप में भी विज्ञान का योगदान है ना कि क्रिकेट का। वैज्ञानिक सीएनआर राव और क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर को सर्वोच्च नागरिक सम्मान दिया गया। लेकिन मीडिया ने जिस प्रकार से सचिन को प्रमुखता दी उससे तो ऐसे लगता है जैसे श्री राव को उनके सामने कोई अस्तित्व ही नहीं है। श्री राव की तुलना में सचिन की ये बड़ी बड़ी फोटो। खबरों में उनसे बड़े अक्षरों में नाम। अखबारों में नाम भी श्री राव से पहले लिखा गया सचिन का। जैसे सचिन के सामने वे तो कुछ हैं ही नहीं। एक क्रिकेटर को वैज्ञानिक की तुलना में इतनी अहमियत! जितना श्री राव को विज्ञान का अनुभव होगा उतनी उम्र होगी सचिन की। दो चार साल आगे पीछे से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। ऐसे में कौन चाहेगा वैज्ञानिक बन देश और विज्ञान की सेवा करना। सब के सब क्रिकेटर बनना पसंद करेंगे। तब कैसे कौन करेगा खोज?कैसे होंगे अनुसंधान? कैसे आगे बढ़ेगा विज्ञान? कैसे और कौन करेगा सृजन? सब का सब रुक जाएगा जहां है वहीं। जड़ हो जाएगा विकास का काम साथ में विज्ञान। जिस देश का राष्ट्रपति वैज्ञानिक रह चुका हो। उस देश के मीडिया में विज्ञान की एक खेल के सामने इतनी तौहीन। वह भी उस खेल के सामने जिसे पूरी दुनिया के देश खेलते तक नहीं। जबकि विज्ञान तो दुनिया के हर कौने में है। विज्ञान के बिना तो कुछ भी संभव नहीं। विज्ञान और वैज्ञानिक तो पुरातन है और क्रिकेट और क्रिकेटर कल के। कैसी विडम्बना है कि मीडिया विज्ञान,वैज्ञानिक और उनकी उपलब्धियों को क्रिकेट से छोटा मान रहे हैं। आज देश का महान वैज्ञानिक उस खिलाड़ी के सामने मीडिया में छोटा हो गया जिसका समाज,देश और दुनिया के लिए ऐसा कोई योगदान नहीं जिसे जमाना धरती रहने तक याद रख सके। कोई खिलाड़ी उस खेल के लिए  महान हो सकता है। भगवान भी उसके समर्थक उसे कहें तो किसी को क्या आपत्ति है लेकिन वह किसी भी सूरत में वैज्ञानिक से बड़ा नहीं हो सकता। क्योंकि उसकी खोज अनंत काल तक दुनिया को रास्ता दिखती है। नई खोज आगे बढ़ाने के लिए काम आती है। जबकि एक क्रिकेट खिलाड़ी के रिकॉर्ड किस के काम आएंगे! वे केवल कागजों में रहेंगे। अधिक से अधिक उस समय उनका  जिक्र हो जाएगा जब कोई उसकी बराबरी करेगा या आगे निकलेगा। वे किसी खिलाड़ी के लिए तो प्रेरणा हो सकते हैं पूरी दुनिया के लिए नहीं। जबकि विज्ञान,वैज्ञानिक और उसके अनुसन्धानों से इंसान,समाज,देश और दुनिया पता नहीं कहां से कहां तक ले जाने की प्रेरणा तो देते ही हैं साथ में विकास के नए नए मार्ग उपलब्ध करवाता है। इसके बावजूद पता नहीं मीडिया को क्या हो गया जिसने विज्ञान,वैज्ञानिक की तुलना में क्रिकेट और क्रिकेटर को कवरेज में इतनी अधिक प्रमुखता दी। शायद उसका कारोबारी फायदा विज्ञान,वैज्ञानिक और श्री राव की बजाए क्रिकेट,क्रिकेटर और सचिन को प्रमुखता देने मे अधिक था। आज कथा वाचक राधा कृष्ण शास्त्री की कही एक बात याद आ गई....उन्होने गंगानगर में कथा के दौरान कहा था, परिवारों में दो दो बच्चे ही हुए तो फिर संत,वैज्ञानिक और सैनिक कहां से आएंगे ? बेशक उन्होने यह बात किसी और संदर्भ में कही थी लेकिन है तो सटीक । समाज,देश और मीडिया में क्रिकेटर को वैज्ञानिक की तुलना में इतना अधिक महत्व मिलेगा तो फिर कोई क्यों बनेगा वैज्ञानिक।