Wednesday, July 31, 2013

हादसे के बाद भीड़ नहीं चिकित्सा जरूरी है

श्रीगंगानगर-अत्यधिक शोकाकुल कर देने वाला हादसा। पत्थर दिलों को पिघला देने वाली दुर्घटना। कई घंटे तक ना तो इस बात की पुख्ता जानकारी कि कितने बच्चे मरे  ना और ना इस बात की कि घायलों की संख्या कितनी है। हर कोई बदहवास। वह भी जिनके घरों में हादसे की खबर पहुंची और वे भी जो सिस्टम का हिस्सा हैं। हादसा ही ऐसा  था। सड़क से लेकर अस्पतालों तक खून बिखरा था। घरों में रुदन था। दीवारों को भेद देने वाला विलाप  था। शोक,पीड़ा,दर्द,संवेदना आंसू थे हर उस तरफ जहां तक इस दुर्घटना का संबंध था। कुछ  वहां भी जहां नहीं था। जिसको जब सूचना मिली दौड़ पड़ा। घटना स्थल पर। हस्तापल में। मेडिकल स्टाफ। पुलिस प्रशासन नेता। मीडिया। दोस्त-रिश्तेदार,परिवार। यह सब स्वाभाविक है पूरी तरह। अनेक का आना जरूरी है। उनको आना ही पड़ता है। कोई बुलाए या ना बुलाए। कुछ के आने की उम्मीद होती है। कुछ होते हैं तमाशबीन। इनमें सबसे जरूरी है मेडिकल स्टाफ। इनके अलावा जो भी होते हैं वे किसी ना किसी रूप में,कम या अधिक  चिकित्सा सेवा को प्रभावित करते हैं। क्योंकि उनको चिकित्सा क्षेत्र की जानकारी नहीं होती। मीडिया को खबर ब्रेक करनी है। हर क्षण की। हर एक क्षण को कैमरे में कैद करने की जल्दबाज़ी,भागदौड़। नेताओं को घायलों की कुशल क्षेम पूछनी है। मृतकों के परिजनों से संवेदना व्यक्त करनी है। यह सब इस प्रकार से हो ताकि मीडिया के कैमरों में आ सकें। प्रशासन को जरूरी इंतजाम करने होते हैं। यह सब सामान्य बात हैं। लेकिन उस समय बड़ी मुश्किल हो जाती है जब सब के सब घायलों के आस पास पहुँच जाते हैं।इमरजेंसी में भीड़ है और घायलों के बेड के निकट भी कई लोग खड़े हैं। कई बार तो चिकित्सा स्टाफ को अपना काम करने में भी कठिनाई का सामना करना पड़ता है। जबकि ऐसे हादसों के बाद प्रारम्भिक घंटे ही सबसे अधिक महत्वपूर्ण होते हैं। जो कितने ही घायलों की जाती ज़िंदगी को लौटा सकते हैं। सब लोग आएं....लेकिन व्यवस्था ऐसी हो कि हॉस्पिटल के उन हिस्सों से लोग दूर रहें जहां घायलों को लाया जा रहा हो। मेन गेट से....वार्ड से....इमरजेंसी से.....। जिससे चिकित्सा स्टाफ को भागदौड़ करने में कोई दिक्कत ना आवे। सब लोग ऐसे स्थान पर रहें जहां से वे आने जाने वालों को देख सके। जरूरत पड़ने पर चिकित्सा स्टाफ की मदद करने के लिए  जा सकें। जनप्रतिनिधि वहीं से प्रशासन की कार्य प्रणाली पर निगाह रख सकते हैं। अधिकारी से बात कर सकते हैं....उनसे जानकारी ले सकते हैं। किसी हादसे पर तो कोई बस नहीं लेकिन ऐसे दुखद,पीड़ादायक अवसरों पर थोड़ी सी व्यवस्था सभी घायलों की बहुत अधिक मदद कर सकते हैं। जब स्थिति नियंत्रण में आ जाए तो नेता,अधिकारी वार्ड में जाकर घायलों से मिलें। मीडिया मौके की जानकारी ले...फोटो खींचे...वीडियो करे। मगर ऐसा करे कौन..बात पहले मैं....पहले मैं की है। ईश्वर करे फिर कोई ऐसा हादसा ना हो। फिर भी कहते हैं कि अच्छे की कामना करो और बुरे के लिए तैयार रहो। आज बस इसके अलावा कोई बात नहीं। ना शेर और ना किसी के शब्द। 

Saturday, July 27, 2013

हैरानी की बात नहीं यह बाऊ जी का स्टाइल है


श्रीगंगानगर-पहले अपने खास बंदे को अपने ही सामने अपने घर से रुसवा हो जाने दिया  फिर पुचकार कर  गले भी लगा लिया। गले भी इस अंदाज में लगाया जो सभी को दिखे। आइडिया लगाओ...सोचो...चिंतन करो..ऐसा कौन कर सकता है। यह स्टाइल है इस क्षेत्र के जाने माने राजनीतिज्ञ राधेश्याम गंगानगर उर्फ बाऊ जी का। बाऊ जी रूठे हुए को मनाने में उस्ताद हैं। यही तो है असली राजनीतिक होने की पहचान। ना भी मनाते तो बाऊ जी के क्या फर्क पड़ना था। जहां इतने रूठे हैं एक और सही। लेकिन नहीं....बात दूर तक जाने की स्थिति हो तब राजनीति यही कहती है कि कोई  अपना दूर हो रहा है तो उसको आँखों से ओझल होने से पहले ही वापिस बुला लो। ऐसा की तो किया बाऊ जी ने। उनके घर से उनके ही पुराने खास बंदे को एक युवक ने,जो उनके बेड रूम में बैठा था, हाथ पकड़ कर घर से बाहर निकाल दिया। हालांकि बाऊ जी ने तब कहा भी था कि तू ये क्या कर रहा है....ये बाप बेटे की बात है। लेकिन युवक ने जो करना था वो कर दिया। बाऊ जी का खास बंदा रूठ गया। यह बात थोड़ा आगे चली तो बाऊ जी सक्रिय हो गए अपने अंदाज में। बंदे को फोन किया....बंदे ने कहा जाना था, जब खुद बाऊ जी फोन कर रहें हैं। बंदा कार लेकर बाऊ जी के पास। बाऊ जी ने हाथ फेरा....गिले शिकवे दूर किए। तो जनाब! बाऊ जी ने उसको  मनाया। उस युवक को बुरा भला कहा जिसने बंदे को हाथ पकड़ कर घर से निकाला था और फिर सब ठीक। फिर तो बंदा बाऊ जो को अपनी कार में लेकर इधर उधर गया। इस रिपोर्टर के पास भी आए....जैसे दिखाना चाहते थे कि हो गया सब ठीक। इसे कहते हैं राजनीति। ये है आज की दौर की राजनीति...चुनाव निकट हो तो रानीतिक आदमी में ये विनम्रता और भी जरूरी हो जाती है। अपने खास बंदों के लिए तो और भी। क्योंकि खास समर्थक सालों में तैयार होते हैं। बहुत कम राजनीतिक होंगे जो अपने खास व्यक्तियों को दूर जाने देते हैं। वे साम,दाम,दंड और भेद से उनको अपने साथ रखते हैं। उनकी बात सुनते हैं। उनका गुस्सा सहते हैं। उनके काम आते हैं। तभी उनकी राजनीति सफल होती है। उनको देख दूसरे लोग साथ आते हैं। यूं खास बंदों को हाथ से जाने दें तो फिर नए कैसे आएंगे। ऐसी बात कितने राजनीतिक समझते हैं। राजनीति में विनम्रता,चाहे दिखावे की हो, राधेश्याम गंगानगर जितनी तो यहां किसी में नहीं है। वो जमाने कुछ और होंगे जब राधेश्याम गंगानगर काले शीशे वाली कार में चला करते थे और उनको बहुत कम व्यक्ति दिखाई दिया करते थे। अब कुछ लोग इसे अवसरवादिता कह सकते हैं कुछ राजनीतिक परिपक्वता। कइयों को यह बाऊ जी का नाटक लगेगा। किसी को दिखावा। जो कुछ भी हो, ऐसा कितने राजनीतिक करते हैं। यह राजनीति में लंबी पारी खेलने की कला है। कला है तो दिखनी भी चाहिए। जंगल में मोर नाचा किसने देखा।

जातिवाद तय करेगा दशा और दिशा आगामी चुनाव की

श्रीगंगानगर-पहले दो घटनाओं का जिक्र उसके बाद कुछ और। दोनों घटनाएँ यहां के दो प्रमुख नेताओं से संबन्धित हैं। ये दो प्रमुख नेता आज के समय में तो बीजेपी के राधेश्याम गंगानगर और कांग्रेस के राजकुमार गौड़ ही  हैं। ऐसा नहीं कि बाकी नेताओं की पूछ नहीं। उनकी भी अपनी अहमियत है राजनीति में परंतु शीर्ष पर ये ही हैं वर्तमान में। पहली घटना...नेता से सालों से घरेलू संबंध रखने वाला व्यक्ति अपने रिश्तेदार के लिए डिजायर लेने चला गया। गहरे रिश्ते थे....डिजायर मिलने में क्या परेशानी थी। नेता जी ने डिजायर तो दे दी....उसके बाद उन्होने ये पता करवाया कि इस डिजायर से उनकी जाति के बंदे पर तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा। दूसरी....नेता जी का बहुत मान करता था बंदा। उसी के भरोसा था। मन में कोई भी विचारधारा हो लेकिन वोट इसी को देना। तो जनाब बंदे का ट्रांसफर हो गया। बंदा इस पावरफुल नेता जी के घर गया। नेता जी की तबीयत थोड़ी ढीली थी...इसलिए वे आराम कर रहे थे। रिश्ते पुराने थे, बंदा आरामगाह में चला गया। बात हुई....उलाहना दिया...। वहीं नेता जी के परिवार का कोई युवक बैठा था। उसने बंदे को कहा...अब उठ जाओ....चले जाओ.....। ऐसी स्थिति में कोई गैरतमंद कैसे बैठ सकता था। बंदे के आंसू बाहर नहीं आए बस। इस घर में इतना अपमान झेलना होगा उसने कभी सोचा भी नहीं था। दोनों घटनाओं में जिनका अपमान हुआ वे दोनों अग्रवाल समाज के थे। जिसकी वजह से उनके साथ ऐसा व्यवहार हुआ वे नेताओं की बिरादरी  के थे। यह मात्र संयोग है तो बड़ा विचित्र है। अगर यह नियतन हुआ तो फिर इस नगर की अग्रवाल बिरादरी को सोच और समझ लेना चाहिए कि उनके लिए इन नेताओं के दिलों में कोई पूछ नहीं है। है तो इतनी जितनी वोट लेने के लिए जरूरी हो। बेशक दोनों नेता जात बिरादरी से दूर रहने की बात करते होंगे मगर हकीकत उक्त शब्दों में बयां की जा चुकी है। इन बातों का जिक्र कर हम ये नहीं कह रहे कि अग्रवाल बिरादरी इनको छोड़ दे, उनको पकड़ ले....इधर चली जाए उधर चली जाए। इन शब्दों का मतलब यह बताना है कि नेता अग्रवाल समाज के अपने खास बंदों को भी किस प्रकार से ट्रीट करते हैं जब उनके सामने उनकी ही बिरादरी का व्यक्ति हो। इतना ही नहीं ये शब्द इस नगर की राजनीति की दशा और दिशा की हकीकत भी है।संभव है ये विधानसभा चुनाव की जीत हार को प्रभावित करे। ये तो वे घटनाएँ हैं जो सामने आ गईं....संभव हैं ऐसी और भी हों। आस पास निगाह डालेंगे तो दिख भी जाएंगी।


Friday, July 19, 2013

किसी दूसरे कांता सिंह को लाना ही होगा…



श्रीगंगानगर-श्रीगंगानगर मस्त तबीयत के नागरिकों का शहर है। ऐसे नागरिक जो इधर-उधर बैठकों में,चाय की दुकानों में,अपने प्रतिष्ठानों में,मित्र मंडली में,क्लब में  तो शासन प्रशासन के बारे में सौ तरह की बात करेंगे। मगर अपने शहर के लिए समय नहीं देंगे। अपने खुद की सुरक्षा,सुविधा के लिए दुकान छोड़ने का जी इनका नहीं करेगा। जो मिल गया उसी को  मुकद्दर समझ लिया...गीत गाते हुए सब कुछ हवा में उड़ा देंगे। अब भी ऐसा ही होगा....कोई अच्छा अधिकारी चला गया तो कोई अफसोस नहीं और कोई बेकार अधिकारी छाती पर आ गया तब भी कोई शिकायत नहीं। किस मिजाज का शहर है ये,समझना बड़ा मुश्किल है। इतनी बड़ी भूमिका एसआई कांता सिंह के बारे में। ट्रैफिक इंचार्ज कांता सिंह के बारे में। उस कांता सिंह के बारे में जो हमेशा विवादों में रहा। उस कांता सिंह के लिए जिसका काम करने का अंदाज अलग  ही है। वह कांता सिंह जिसके बारे में ये कहा और सुना जाता है कि वह तो पुलिस में रहने के काबिल ही नहीं। उसी कांता सिंह ने श्रीगंगानगर में अपने काम से एसपी से अधिक चर्चित हुआ। नगर की बिगड़ी ट्रैफिक व्यवस्था को ठीक किया। लड़कियों की शिक्षण संस्थाओं के संचालकों को एसपी के फोन नंबर याद हों ना हों मगर कांता सिंह के जरूर पता  थे। क्योंकि उनको उम्मीद थी कि संस्था के आस पास के बिगड़े माहौल को कांता सिंह ही ठीक कर सकता है। उसने किया भी। शहर की हर गली हर सड़क कांता  सिंह को जानती और पहचानती है। किसकी हिम्मत है जो अपने वाहन सड़क पर लगाई गई पार्किंग लाइन से बाहर खड़ा करे। वह जानता है कि ऐसा हुआ तो क्रेन उठाकर ले जाएगी। अब कांता सिंह श्रीगंगानगर में नजर नहीं आएगा। नहीं  आएगा तो नहीं आएगा.....किसी को कोई परवाह नहीं। क्योंकि जनता को कोई फर्क नहीं पड़ता। अधिक से अधिक क्या होगा....कहीं बैठकर अच्छी बुरी चर्चा कर लेंगे और क्या! किसी से कहेंगे नहीं कि ऐसा नहीं होना चाहिए था। तबादले होते रहते हैं। सामान्य बात है....बिलकुल सामान्य बात है। कांता सिंह को तो कोई नेता वापिस इस शहर में ला नहीं सकता। अब तो देखना ये है कि दूसरा कौनसा अधिकारी कांता सिंह जैसा काम कर उसके किए काम को भुलाने की योग्यता प्रदर्शित करता है। अरे कोई तो बोलो....अपनी जुबां खोलो....ये शहर आपका है....शहर में रहना है....सड़क पर निर्विघ्न चलना है....लड़कियों को बेखौफ करना है तो कांता सिंह लाना ही होगा। ये वापिस नहीं आ सकता तो ऐसा ही या इससे बढ़िया कोई दूसरा। संभव है अनेक पाठकों को यह लिखा पसंद ना आए। लेकिन वे दिल से ये जरूर कहेंगे कि बात तो ठीक है। क्योंकि वही तो लिखा जो हुआ। दो लाइन पढ़ो....जहां से चला था वहीं आ गया हूं ,ये कैसा सफर है जो खत्म नहीं होता।

Sunday, July 14, 2013

शहर गंगा सिंह जी का है....सत्ता केवल पुलिस की


श्रीगंगानगर-श्रीगंगानगर में किसी नागरिक को रहना है तो अपनी रिस्क पर रहे। पुलिस से किसी प्रकार की कोई उम्मीद ना करे। आप के साथ कोई भी जुल्म  हो आपका यही फर्ज है कि चुपचाप सहन करो और घर चले जाओ। चोरी हो गई...ईश्वर का प्रकोप समझ कर चुप रहो। रास्ते में किसी ने लूट लिया....किसी से मत कहो....ये सोच कर अपनी राह पकड़ लेना कि बुरा समय आया था। बाइक  चोरी हो गई...पैदल चलना शुरू करो  या हैसियत हो तो दूसरी ले आना....थाना जाओगे,रिपोर्ट करोगे  तो  मन को और अधिक पीड़ा होगी। किसी ने राह चलते मार पीट कर ली तो दूसरा गाल भी आगे करने का गांधीवादी फर्ज अदा करना। किसी घटना...अपराध....की सूचना भूल कर भी पुलिस को मत देना...वरना ऐसी मुसीबत आएगी कि पूरा घर टेंशन में रहेगा....फिर भी जान छूटेगी क्या गारंटी है। मोहल्ले में लड़कों का जमघट है....बाइकर्स का डर है तो घर के दरवाजे बंद कर लो या फिर मोहल्ला बदल लो....पुलिस को गलती से भी ना बताना....ये लोग रोज और अधिक परेशान करेंगे आपको। ये स्थिति इस शहर की जो है महाराजा गंगा सिंह जी ने बसाया था। कहते हैं कि उनके राज में ना तो अन्याय था और ना अपराध। वे कोई डंडा लेकर थोड़ा ना घूमते थे हर गली में...बस उनके राज का डर था। उनके ही शहर में आज भी डर तो है लेकिन या तो पुलिस का या असामाजिक तत्वों का। हैरानी की बात है कि असामाजिक तत्वों को पुलिस का कोई डर नहीं। ये लोग कहीं भी  कभी भी कुछ भी कर सकते हैं। थाना चले जाओ...न्याय नहीं मिलेगा। हां,पंचायती से फैसला जरूर करवा देंगे। जी, इसके दाम तो देने ही पड़ेंगे। आदमी सोचता है...पैसे लग गए जान तो छूटी। कई बार तो ऐसा लगता है जैसे थाना से लेकर एसपी ऑफिस तक सब कुछ बड़े बड़े सेठों के यहां गिरवी रख दिया गया है। जन सहयोग के नाम से थाना और कई अधिकारियों के दफ्तरों में जो सुविधा है वह इनके ही द्वारा ही तो उपलब्ध करवाई जाती हैं। या अधिकारियों द्वारा ली जाती हैं।जब कोई किसी से कैश या काइंड अथवा सामान लेकर ओबलाइज हो गया तो उसकी नजर तो झुक ही जाएगी ना। स्वाभाविक है ये बात। उसके बाद फिर पुलिस में किसकी चलेगी! आम आदमी थाना में जाने से पहले सिफ़ारिश की तलाश करता है। ताकि सुनवाई हो सके। कोई भी पीड़ित अकेला नहीं जाता...चला भी गया तो उसके साथ जो कुछ होता है वह किसी को बताए तो विश्वास ही ना करे। तो जनाब ये शहर जरूर महाराजा गंगा सिंह जी ने बसाया है...लेकिन अब राज उनका नहीं है। इसलिए यहां  रहना है तो अपना जमीर,स्वाभिमान,आत्मसम्मान गटर में डाल दो। जो होता है होने दो.....ये सोच कर कि भगवान की यही मर्जी है। जिनके लिए पुलिस प्रशासन काम कर रहा है वह उनको करना चाहिए। वो आपके लिए है ही नहीं। जिनके हैं ए है उनके लिए हैं। इसलिए उनको बुरा भला कहने से कोई फायदा नहीं...कहोगे तो अपनी ही सेहत खराब करोगे।

Friday, July 5, 2013

माता-पिता दुश्मन तो नहीं होते बच्चों के

श्रीगंगानगर-सुबह का सुहाना समय। एक घर से लड़का बाइक लेकर निकला। किताबों का पिट्ठू बैग था। वह होगा कोई 15 साल का। मूंछ की हल्की सी लाइन बता रही थी कि लड़का जवानी की तरफ कदम बढ़ा रहा है। भले और अच्छे घर के इस किशोर लड़के के पीछे उसके पिता आए। आवाज लगाई....थोड़ा पीछे गए.....उसे रोका.....जादू की झप्पी देने की कोशिश की। लड़के ने हाथ पीछे कर दिया और बाइक लेकर स्कूल चला गया। पिता देखता रहा उसे दूर जाते हुए। पिता मायूस चेहरे के साथ घर आ गया। यह दृश्य बता रहा था कि घर में कुछ ऐसा हुआ जिससे लड़का नाराज हो गया। पिता होता ही ऐसा है कि पीछे आया उसे मनाने को। लेकिन आज के बच्चे!...कमाल है। पुराना समय होता तो पिता एक देता कान के नीचे.....अब समय बदल गया है। थोड़ी उम्र क्या ली बच्चों ने माता-पिता दुश्मन हो जाते हैं उनकी नजर में। दुश्मन भारी शब्द है तो इसकी जगह कुछ और लिख लो बेशक ....लेकिन सच्ची बात तो यही है। खैर, ये बात बेशक सड़क के एक दृश्य की है। परंतु घरों के अंदर ऐसा रोज होता है। बच्चे माता पिता की किसी भी प्रकार की टोका-टाकी को अपने अधिकारों का हनन समझ लेते हैं। वे यूं रिएक्ट करते हैं जैसे माता पिता ने उनको कुछ निर्देश या आदेश देकर जुल्म कर लिया हो। वो भी ऐसे बच्चे जो पूरी तरह अपने माता-पिता पर निर्भर हैं। जिनके पास घर की आर्थिक स्थिति के अनुसार हर सुविधा है। बड़े स्टेटस वाला स्कूल। ड्राइविंग लाइसेन्स बेशक ना हो आने जाने के लिए महंगी बाइक जरूर होगी। नए जमाने का वो मोबाइल....जिसका नाम भी मुझे नहीं लिखना आता। चकाचक ड्रेस और बढ़िया पॉकेट खर्च। फेसबुक लिखना तो भूल ही गया। इनमें से कुछ उसकी जरूरत है और कुछ नहीं भी। इसके बावजूद बच्चों के पास वह होता है। क्योंकि कोई भी माता पिता ये नहीं चाहता कि बच्चे को कोई कमी महसूस हो। यह सब तो बच्चों को देने का फर्ज माता-पिता का है। परंतु कुछ कहने का हक उनको बिलकुल भी नहीं है। वो जमाना और था जब यह अधिकार माता-पिता तो क्या चाचा,ताऊ और पड़ौसी तक को हुआ करता था। अब तो घर में बच्चों के साथ रहना है तो मुंह बंद करके रहो। घर घर में बड़े अपने बच्चों के चेहरे पढ़ते हुए दिखाई देते हैं। खुद का मूड चाहे कैसा भी हो बच्चों के मूड की चिंता अधिक रहती है। पता नहीं आज कल के माता-पिता को संस्कार देने नहीं आते या बच्चों को इनकी कोई जरूरत ही नहीं रही। जो बच्चे ऐसे हो रहे हैं। वे अपनी दुनिया अलग ही बसा रहे हैं। उस दुनिया में माता-पिता का प्रवेश तो वर्जित है ही साथ में किसी भी प्रकार की टोका टाकी भी प्रतिबंधित है। प्रकाश की गति से भी तेज चल रहा समय और क्या क्या रंग दिखाएगा पता नहीं।