श्रीगंगानगर। गंगानगर नामक इस
शहर मेँ पानी के अलावा अगर कोई है और उसमें शर्म भी हो तो वह डूब मरे। चुल्लू भर पानी
मेँ तो डूबने की कहावत भर है। उसमें डूबना संभव नहीं। डूबने के लिए बरसाती पानी है। जिधर कम पड़ेगा उधर गड्ढे
कमी पूरी कर देंगे। लेकिन ऐसा होगा नहीं। क्योंकि इधर ऐसा कोई रहता ही नहीं, जिसके अंदर शर्म नाम की कोई स्वाभिमानी वस्तु
बची हो। थोड़ी बहुत भी नहीं। अजी, छटांक क्या, तोला मासा भी नहीं है। सब के सब अंदर बैठ कर उस बंदे को गाली निकालने वाले
हैं, जिस तक उसकी पहुँच नहीं। यूं कहने को तो शहर भरा पूरा है।
धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक सभी तरह के व्यक्तियों की भरमार है। हर वह सरकारी दफ्तर है जो होना
चाहिए। अफसर भी हैं और एक से एक लाजवाब जन
प्रतिनिधि भी । परंतु अफसोस इस बात का है कि इन सब मेँ वह नहीं है जो एक इंसान मेँ
होनी चाहिए। गैरत ! स्वाभिमान! आत्मसम्मान! शर्म! लिहाज! अपने शहर के लिए फिक्र। उसकी
भलाई की सोच। आवाज। आक्रोश। ताव। झाल। पानी
के अंदर चलो तो उसमें से भी आवाज आ जाएगी। जैसे चलने वाले को कह रहा हो, संभल के, गिर मत जाना। किन्तु, क्या मजाल कि इस शहर के किसी कौने से कोई आवाज निकले। कोई चिल्लाइए कि ये
गलत हो रहा है। कोई बोले, ये नहीं होना चाहिए। फिर इन आवाजों
मेँ सम्मिलित हो कुछ और आवाज। स्वर। फिर जब सुर से सुर मिले तो आक्रोश पैदा हो। झाल
आवे। ताव दिखे। बात फिर वही कि पहले एक आवाज तो सुनाई दे कहीं से। सरसराहट तो हो किसी
घर से। गली मेँ। ऐसा हो नहीं रहा। आवाज क्या आनी है। खुसर फुसर भी नहीं होती दिखी कहीं।
तीन दिन हो गए। बरसात ने पूरे शहर की सड़कों को जाम कर दिया। किधर सड़क का हिस्सा है
और किधर गड्ढा, कोई नहीं जानता। कौन कब किस सड़क पर रपट जाए, किसे
पता। आज उस घर के निवासी बहुत भाग्यशाली हैं, जिसके घर के आगे
बरसाती पानी नहीं है। वे भी किस्मत के धनी हैं, जिनकी गली मेँ
आने जाने लायक सड़क है। वरना तो जिधर देखो उधर पानी का दरिया दिखाई देता है। गली हो
या सड़क, सब की सब पानी से लबालब। केवल बरसाती पानी हो तो भी कोई
बात नहीं। इसमें तो नालियों और घरों के गटरों का पानी भी मिल चुका है। जिस वजह से पानी
के अंदर से गुजरना जैसे गटर मेँ से आवागमन करना। शहर की यह स्थिति है और किसी ने कोई
बड़ा प्रयास किया हो ऐसा कहीं सुनने मेँ नहीं आया। जनता की आवाज तो है ही नहीं। बस केवल
फेसबुक पर गुस्सा निकाल रही है। जनता भी किधर जाए! उसे कोई रास्ता
नजर ही नहीं आ रहा। राधेश्याम गंगानगर को नकार दिया। कामिनी जिंदल अभी परिपक्व नहीं।
कांग्रेस वाले बोलने क्यों लगे? नगर परिषद मेँ सभापति का होना
ना होना एक समान है। उनको पता ही नहीं कि सभापति होता क्या है! अफसरों को इस शहर से
लेना ही क्या है। जनता किसके पास जावे। किसे अपना दर्द सुनावे। जब जनता ही ऐसी है तो
अफसरों का क्या दोष। इसलिए पड़े रहो घरों मेँ। सड़ते रहो गंदे पानी मेँ। होने दो अस्त
व्यस्त कारोबार, पढ़ाई का बंटाधार। पानी जब निकलेगा तब निकल जाएगा।
उसको कुछ नहीं तो मुझे क्या! दो लाइन पढ़ो—
मन ना भी हो तब भी मुस्कुराना पड़ता है
सच्चे, झूठे
रिश्तों को निभाना पड़ता है।
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