Friday, September 25, 2015

मूर्ख ! शहर की नहीं, जन प्रतिनिधि की फिक्र कर !

श्रीगंगानगर। मेरी बची खुची आत्मा ने मुझे धिक्कारा, फटकारा और फिर बोली...तू मूर्ख है। नादान है। बेअक्ल है। पागल है। दीवाना है। तुझे शहर के मान सम्मान की चिंता है। इधर जन प्रतिनिधि का सम्मान दांव पर लगा है। तू उठ। कमर कस।  आग लगा। तूफान ला। कुछ भी कर। बस, जन प्रतिनिधि का सम्मान बचा । जन प्रतिनिधि का सम्मान बचना चाहिए। शहर का क्या? उसका सम्मान है, तो शहर का है। शहर उसी से बनता है। याद रख। याद नहीं रख सकता तो  अपने पल्ले गांठ बांध ले कि जन प्रतिनिधि से बड़ा कोई नहीं होता। वही सर्वोच्च सत्ता है। ऊपर ईश्वर की सत्ता है और शहर मेँ जन प्रतिनिधि की। ईश्वर के  बारे मेँ तो संभव है किसी को संदेह भी हो, लेकिन इसकी सत्ता पर किसी को कोई शंका नहीं हो सकती। ये ईश्वर है शहर के। इसलिए अपने मन, कर्म और वचन मेँ इसी  हिसाब से ले जन प्रतिनिधि को । इसे  वंदन कर। इनकी  गली का अभिनंदन कर। उस  चौखट पर सजदा कर, जहां ये विराजते हैं। प्राण प्रतिष्ठित हैं। अपराधी! पापी! अधर्मी! जन प्रतिनिधि द्रोही! तेरी हिम्मत कैसे हुई शहर की चिंता करने की! वह भी जन प्रतिनिधि से पहले। बेवकूफ! जब जन प्रतिनिधि के सम्मान के लाले पड़े हों तो तुझे शहर के सम्मान की चिंता करने की सलाह किसने दी!  तेरा पाप अक्षम्य है। इस घोर पाप से ना तो गंगा मेँ स्नान करके मुक्ति मिलेगी , ना पिंड दान करने से छुटकारा। ब्राह्मणों को भोज करवाएगा तब भी कोई फायदा नहीं होने वाला। तेरा पाप है ही इतना विशाल कि कोई क्या करे!  इस पाप से तुझे एक ही व्यक्ति मुक्त कर सकता है, खुद जन प्रतिनिधि। इसलिए उसकी शरण मेँ जा। अभय हो जा। ये क्षमाशील है। क्षमा भाव रहता है इनके दिलों मेँ। तुझे माफ कर देंगे। बस, उसके बाद से शहर के हालात की चिंता नहीं, जन प्रतिनिधि का सम्मान बचाने पर चिंतन करना । वो  कहे तो दिन। वो कहे तो रात। नादान बालक! हमेशा याद रखना, जन प्रतिनिधि से बड़ा शहर नहीं हो सकता। उसके सम्मान, स्वाभिमान के सामने शहर के सम्मान, आत्मसम्मान, स्वाभिमान की कोई औकात नहीं। वो समय और था जब देश, शहर महान हुआ करता था। तब दादाओं, पड़ दादाओं का जमाना था। आज बात और है। अब पोतों का जमाना है। तब आपसी संवाद था। आजकल फेसबुक और व्हाट्स एप है। इतना सब बदल गया तो तू भी बदल। शहर को भूल जा। जन प्रतिनधि को याद रख। तेरा मूल काम यही है। तूने ही उसे चुना है। इसलिए उसके सम्मान की रक्षा करने की ज़िम्मेदारी भी तेरी है। ज़िम्मेदारी ही नहीं धर्म है धर्म। एक मात्र धर्म। इसलिए तू यही कर। शहर की फिक्र जन प्रतिनिधि करेंगे। ना भी करें तो तुझे क्या। तू तेरा धर्म निभा। इसी मेँ तेरा कल्याण है और तेरी मुक्ति का मार्ग भी। क्योंकि भारत मेँ तेरा जन्म ही जन प्रतिनिधि की सेवा चाकरी के लिए हुआ है। अपने जन्म को सार्थक कर। ऐसा करने से शहर के सभी मार्ग तेरे लिए पहले से अधिक सुगम हो जाएंगे। और क्या! बताना, समझाना हमारा काम है। जन प्रतिनिधि का सम्मान बचना तेरा। ठीक। 

1 comment:

कविता रावत said...

बिलकुल जन प्रतिनिधि का सम्मान हर हाल बचाये रखना आम नागरिकों का कर्तव्य है आखिर वे हमारे माननीय जो बन जाते हैं.... हूँ हूँ हूँ हा हा हा
बहुत खूब!