Monday, November 9, 2015

व्यापारी नेताओं मेँ दम नहीं, कर दो दुकानें बंद, तोड़ने दो कब्जे


श्रीगंगानगर। श्रीगंगानगर मेँ जितने भी व्यापारी संगठन के पदाधिकारी हैं, सब के सब नरम हैं। व्यापारियों पर आए संकट पर को निर्णय नहीं कर सकते, सिवा अफसरों के तलवे चाटने के। शहर मेँ कब्जे टूटें, कोई ना बचे, लेकिन इनको तोड़ने का कोई समय तो हो। भारत के सबसे बड़े त्योहार, उत्सव और पर्व दिवाली पर प्रशासन ने जो कुछ किया है, उसके बाद व्यापारियों की दिवाली कोई दिवाली रही है। किसी व्यापारी नेता की हिम्मत नहीं हुई कि वह इस बाबत कोई कदम उठा सके। निर्णय ले सके। होना तो ये चाहिए थे कि व्यापारी दिवाली तक दुकानें बंद कर चाबियाँ प्रशासन को सौंप देते। ये कहते हुए कि जनाब आप कब्जे तोड़ लो। हम तो दुकाने दिवाली बाद खोल लेंगे। ना दिवाली की सजावट हो और ना उस दिन दुकान खुले। फिर देखना था क्या होता? लेकिन जो भी व्यापारी नेता हैं सब के सब प्रशासन से अडस्टमेंट  कर के चलते हैं। क्या करें, कारोबार भी तो करना है। खुद इस रिपोर्टर ने सुझाव दिया एक बड़े व्यापारी को कि आप सब अपनी दुकान बंद कर चाबियाँ कलक्टर को दे आओ। दिवाली ना मनाने की घोषणा कर दो। लेकिन वह कुछ नहीं बोला। किसी शहर मेँ दिवाली के अवसर पर ये माहौल नहीं होता। यहाँ की विधायक की भी खबर ली जानी चाहिए और बीजेपी कांग्रेस के नेताओं की भी। जिनके रहते शहर के लोगों का दिवाली पर ऐसा बुरा हाल हुआ है।

बीजेपी के धुरंधर नेताओं के बीच एक छोटा कार्यकर्ता


श्रीगंगानगर। बीजेपी के बड़े बड़े धुरंधरों के बीच बीजेपी ने हरी सिंह कामरा जैसे अंजान चेहरे को अपना जिलाध्यक्ष बनाया है। पार्टी ने किसी सिख या अरोड़ा को ही यह पद देना था, सो दे दिया। लेकिन दिया भी उसे जिसे जिले मेँ बीजेपी के सभी कार्यकर्ता जानते तक नहीं। उनकी राजनीति केवल विजयनगर मंडी तक जी सीमित रही है। वह भी वहाँ की नगरपालिका तक। इसके अतिरिक्त उनको किसी बड़ी गतिविधि मेँ भाग लेते नहीं देखा। पार्टी ने उनको जिले की कमान दी है तो कुछ सोच के ही दी होगी। वरना उनसे भी बड़े बड़े, अनुभवी बहुत से नेता थे। लेकिन पार्टी हाई कमान ने किसी की नहीं सुनी। जिला अध्यक्षी जैसी महत्वपूर्ण पोस्ट छोटे कस्बे को दे दी, जहां तक जाने के लिए ठीक से कोई सड़क तक नहीं। कामरा जी को अधिक कुछ करना ही नहीं। क्योंकि जिला कार्यकारिणी बनने मेँ ही काफी समय लग जाएगा। उसमें सौ झंझट होंगे। इसमें कोई शक नहीं कि बीजेपी ने एक सामान्य कार्यकर्ता को इतना महत्व दे ये साबित किया है कि उसके इधर देर हैं अंधेर नहीं। लेकिन कहीं उनका हश्र भी अशोक नागपाल जैसा ना हो। 

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