Thursday, June 25, 2009

यस, कमेंट्स प्लीज़

आज के ही दिन १९७५ में हिंदुस्तान में आपातकाल तत्कालीन सरकार ने लगा दिया था। तब से लेकर आज तक देश की एक पीढी जवान हो गई। इनमे से करोड़ों तो जानते भी नहीं होंगें कि आपातकाल किस चिड़िया का नाम है। आपातकाल को निकट से तो हम भी नहीं जानते,हाँ ये जरुर है कि इसके बारे में पढ़ा और सुना बहुत है। तब इंदिरा गाँधी ने एक नारा भी दिया था, दूर दृष्टी,पक्का इरादा,कड़ा अनुशासन....आदि। आपातकाल के कई साल बाद यह कहा जाने लगा कि हिंदुस्तान तो आपातकाल के लायक ही है। आपातकाल में सरकारी कामकाज का ढर्रा एकदम से बदल गया था। कोई भी ट्रेन एक मिनट भी लेट नहीं हुआ करती। बतातें हैं कि ट्रेन के आने जाने के समय को देख कर लोग अपनी घड़ी मिलाया करते थे। सरकारी कामकाज में समय की पाबन्दी इस कद्र हुई कि क्या कहने। इसमे कोई शक नहीं कि कहीं ना कहीं जयादती भी हुई,मगर ये भी सच है कि तब आम आदमी की सुनवाई तो होती थी। सरकारी मशीनरी को कुछ डर तो था। आज क्या है? आम आदमी की किसी भी प्रकार की कोई सुनवाई नहीं होती। केवल और केवल उसी की पूछ होती है जिसके पास या तो दाम हों, पैर में जूता हो या फ़िर कोई मोटी तगड़ी अप्रोच। पूरे देश में यही सिस्टम अपने आप से लागू हो गया। पता नहीं लोकतंत्र का यह कैसा रूप है? लोकतंत्र का असली मजा तो सरकार में रह कर देश-प्रदेश चलाने वाले राजनीतिक घराने ले रहें हैं। तब हर किसी को कानून का डर होता था। आज कानून से वही डरता है जिसको स्टुपिड कोमन मैन कहा जाता है। इसके अलावा तो हर कोई कानून को अपनी बांदी बना कर रखे हुए है। भाई, ऐसे लोकतंत्र का क्या मतलब जिससे कोई राहत आम जन को ना मिले। आज भी लोग कहते हुए सुने जा सकते हैं कि इस से तो अंग्रेजों का राज ही अच्छा था। तब तो हम पराधीन थे।
कोई ये ना समझ ले कि हम गुलामी या आपातकाल के पक्षधर हैं। किंतु यह तो सोचना ही पड़ेगा कि बीमार को कौनसी दवा की जरुरत है। कौन सोचेगा? क्या लोकतंत्र इसी प्रकार से विकृत होता रहेगा? कोमन मैन को हमेशा हमेशा के लिए स्टुपिड ही रखा जाएगा ताकि वह कोई सवाल किसी से ना कर सके। सुनते हैं,पढ़तें हैं कि एक राज धर्म होता है जिसके लिए व्यक्तिगत धर्म की बलि दे दी जाती है। यहाँ तो बस एक ही धर्म है और वह है साम, दाम,दंड,भेद से सत्ता अपने परिवार में रखना। क्या ऐसा तो नहीं कि सालों साल बाद देश में आजादी के लिए एक और आन्दोलन हो।

12 comments:

Gyan Darpan said...

हमारे देश के लोगों को अनुशासन में डंडे के जोर पर ही चलाया जा सकता है इसलिए यहाँ आपातकाल के बारे में सोचना कोई बुरी बात नहीं | पर आपातकाल लगाने वाले दल या सरकार की नियत अपना निरंकुश शासन थोपने की बजाय देश हित सर्वोपरि होना चाहिए |

गिरिजेश राव, Girijesh Rao said...

विनोबा भावे ने आपातकाल को 'अनुशासन पर्व' की संज्ञा दी थी।
आलोचनाएं तो बहुत हुई थीं। हम तो उस समय नान्हें से थे लिहाजा कुछ कह नहीं सकते लेकिन आज देश को 'अनुशासन पर्व' की आवश्यकता है।
उसके रूप पर बहस हो सकती है लेकिन जरूरत तो है और तत्काल है।

विवेक सिंह said...

हमारी सहमति नहीं है जी आपातकाल से !

विवेक सिंह said...

हमारी सहमति नहीं है जी आपातकाल से !

Udan Tashtari said...

ऐसा क्यूँ भई?

अजित गुप्ता का कोना said...

आपातकाल को मैंने बहुत नजदीक से देखा है, उसे अनुभूत किया है। अनुशासन यदि तानाशाही से होकर निकलता हो तब मनुष्‍य का गुलाम बनना तय है, लेकिन यदि अनुशासन कार्यपद्धति से निकलता हो तो उसका स्‍वागत करना चाहिए। राजनैतिक प्रतिद्वंद्वियों को जेलों में ढूंसना और चोर उचक्‍कों को खुली छूट देना अनुशासन पर्व नहीं है। उन दिनों में रेले भी इतनी तो पाबन्‍द नहीं थी हाँ सुधार अवश्‍य हुआ था। क्‍योंकि आम आदमी डरा हुआ था। इस हिटलरी दिवस को यह देश हमेशा याद रखेगा।

परमजीत सिहँ बाली said...
This comment has been removed by the author.
परमजीत सिहँ बाली said...

आपात काल में भी नेता लोग अपना स्वार्थ ही साधते है।आम लोगों को इस का ज्यादा फायदा नही होता।लेकिन देश में अनुशासन तभी हो सकता है जब पहले नेता ईमानदा्री से अपना कार्य करें।।
गुप्ताजी की बात सही है।

राज भाटिय़ा said...

अब तो सब तरफ़ चोर चोर ही है, साधू ओर शारीफ़ लोग एक तरफ़ बेठे देश की किसमत को देख रहे है, ओर सोच रहे है क्या आजादी इस दिन की खातिर ली थी, नेता बेशर्मो की तरह से अपने गंदे दांत दिखा कर अपने गंदे मुंह की बदबु से सारा वातावरन खराब कर रहे है, जिन्हे ना इज्जत की चिंता है, ना देश की.
ओर अब कोई ऎसी महा मारी आये जिस से सब हराम का खाने वाले मरे, ओर कोई रास्ता नही...

डॉ. मनोज मिश्र said...

aise vichar kyon aa rhe hain .

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' said...

बहुत अच्छा लेख....बहुत बहुत बधाई....

cartoonist anurag said...

bahut badia lekh......
narayan..........narayan...