रास्ते का पत्थर, जस्ट फॉर चेंज
अगर तुम समझती होमैं रास्ते का पत्थर हूँ,तो मार दो ठोकर मुझे पत्थर की ही तरह,ध्यान रखना तुम्हारे पैर में कोई चोट ना लग जाए,कहीं तुम्हारे दिल से कोई आह ना निकल जाए,निकली अगर आह तो इस पत्थर को दुःख होगा,हट गया रास्ते से तो दोनों को ही सुख होगा,फ़िर मैं सड़क के किनारे पर पड़ा रहूँगा,इस राह जाने वाले कोकुछ भी नहीं कहूँगा,बस, मेरा इतना काम तुम आते जाते जरुर करना,उसके बाद मेरा फर्ज होगादुआ से तुम्हारा दामन भरना।
5 comments:
अपने फर्ज के बहाने आपने इंसानियत की मिसाल की याद दिलाई है।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
Thank God !
उस पत्थर ने कम से कम ये नहीं कहा कि मुझे उठाकर किसी के खाली पड़े प्लाट में रख देना और मेरे ऊपर एक फूल माला चदा कर वहाँ पर धुप जला देना अथवा उसके ऊपर एक हरी सी चादर चढा देना !
क्षमा करे नारद जी, क्या करे अपने देश में अक्सर यही देखने को मिलता है !
ऐसी परिस्थिति ज़िन्दगी में ना ही आये तो बेहतर होगा जब हम किसी अपने को रास्ते का पत्थर लगने लगें.....तिरस्कृत किये जाने पर भी पत्थर की भावनाएं उसकी महानता को प्रकट करती हैं, पर एक आम आदमी कहाँ से लाये इतनी महानता, इतनी सहनशक्ति....अच्छी लिखी आपने यह कविता....
साभार
हमसफ़र यादों का.......
हम तो pcg की टिपण्णि से सहमत है जी
आश्चर्य !!
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