Wednesday, October 20, 2010

संत,सैनिक,विद्वान् कहाँ से आयेंगे !




श्रीगंगानगर-- जोधपुर के राधाकृष्ण महाराज यहाँ आये तो नानी बाई का मायरा सुनाने थे। परन्तु इसके साथ साथ उन्होंने वो कह दिया जिसकी ओर अभी तक शायद ही किसी का ध्यान गया हो। राधाकृष्ण ने "हम दो हमारे दो" नारे पर बहुत अधिक क्षोभ प्रकट किया। उन्होंने मायरा सुनने आये नर नारियों की मार्फ़त देश से ये प्रश्न किया कि अगर ऐसा ही रहा तो हिन्दूस्तान में साधू,सैनिक और विद्वान् कहाँ से आयेंगे? अपने एक ही बेटे को कौन से माता पिता साधू या सैनिक बनना चाहेंगे। राधाकृष्ण के शब्दों में--हम दो हमारे दो और कोई आये तो धक्के दो। पति पत्नी और दो बच्चे, माता पिता से भी कुछ लेना देना नहीं। उनका कहना था कि हम बहुसंख्यक नहीं अल्पसंख्यक हो रहे हैं।लेकिन कोई इस बारे में सोचने को तैयार नहीं। उनके अनुसार परिवार नियोजन की नीति सबसे ख़राब नीति है।

राधाकृष्ण ने कहा कि नारी स्वतंत्रता की बातें बहुत होती हैं। बड़े बड़े सम्मलेन होते है। किन्तु कपड़ों के अलावा नारी की स्वतंत्रता कहीं दिखाई नहीं देती। एकता,स्वतंत्रता के नाम पर नारी को प्रदर्शन की वस्तु बना दिया गया है। घर में देवरानी-जेठानी एक नहीं होती। उन्होंने घूंघट को सौन्दर्य का संकोच बताया। उनका कहना था कि दायरे में रहने से कद बढ़ता है। आज कल पता ही नहीं लगता कि सास कौनसी है बहु कौनसी। उन्होंने कहा कि घर की बहू जेठ को देख कर घूंघट करती और जेठ उसको देख दूर से निकल जाता। ये था कायदा। इस से दोनों का कद बढ़ता। इसके बाद वे कहने लगे मैं कितना भी कहूँ रहना तो आपने वैसा ही है। राधाकृष्ण ने खेती के लिए बैल को सबसे उपयोगी बताया। उनका कहना था कि बैल से जुताई करने से खेत उपजाऊ होते हैं। उन्होंने अपने मायरे के दौरान प्लास्टिक की थैलियों का उपयोग ना करने का सन्देश दिया। राधाकृष्ण ने कहा कि कथा में आना तभी सार्थक होता है जब कोई उसे समझे,सीखे और माने। उन्होंने ने कहा कि रसोई में जो कुछ बनता है वह सब को मिलना चाहिए। परोसने में भेद भाव हो तो अन्नपूर्णा का अपराधी बन जाता है परोसने वाला। राधाकृष्ण ने यह सब किसी न किसी प्रसंग के समय कहा। हालाँकि कई बार उनकी बात विनोद के अंदाज में थी ,किन्तु निरर्थक नहीं। कथा कहने का उनका अंदाज जितना अनूठा है उतना ही निराला है उनका नृत्य। कथा के बाद जब नर नारी घरों को लौटने की जल्दी में होते हैं तब शुरू होता है उनका नाच। उनकी लम्बी छोटी से लेकर उनके पैरों का ऐसा नृत्य कि कोई भी कुछ क्षण के लिए अपने आप को भूल जाये। भक्ति भाव का नृत्य कैसा होता है उनसे सीखा जा सकता है। उनसे मुलाकात करने से पहले उनका नृत्य देखा होता तो ये जरुर पूछता कि महाराज आपने नृत्य किस से सीखा?

सहज,सरल और आडम्बर से दूर राधाकृष्ण की कथा में भी यह साबित हो गया कि मां के आँचल के अलावा सब जगह सब बराबर नहीं होते। इसका अहसास आयोजन से जुड़े व्यक्तियों को उन्होंने कई बार करवाया मगर भीड़ देखकर बोराए वे लोग बार बार वही करते रहे जो राधाकृष्ण महाराज को पसंद नहीं आ रहा था। उन्होंने कथा आरम्भ होने के कुछ मिनट बाद उनसे कहा, चलो आपके नए कुर्ते देख लिए बहुत अच्छे हैं, अब गैलरी से हट जाओ, जहाँ हो वहीँ बैठ जाओ। बाद में मंच पर चढ़ते हुए इनको कई बार रोका। नीचे उतारा। एक कार्यकर्त्ता को तो यहाँ तक कह दिया कि जब मैंने मायरे के लिए सामान ना लेने के लिए कह दिया था तो क्यों इकट्ठा कर रहे हो, वापिस करो। एक महिला को उन्होंने आवाज देकर उसका सामान वापिस किया। उन्होंने इशारों इशारों में कार्यकर्ताओं से विशिष्टता न दिखाने को कहा, संकेत दिया। इसके बावजूद कोई खास असर देखने को नहीं मिला। आयोजन जबरदस्त था। पुरुषो की संख्या नारियों से एक चौथाई रही। ये आश्चर्यजनक था कि महिलाओं ने कथा के दौरान आपस में बात चीत नहीं की। सबका ध्यान व्यास गद्दी की ओर ही रहा।
कृपा शंकर शर्मा "अचूक" की लाइन हैं --मंजिले हैं कहाँ यह पता कुछ नहीं,सिर्फ आदी हुए लोग रफ़्तार के। जिंदगी एक पल में संभाल जाएगी, गर समझ लें सलीके जो व्यवहार के। ---
गोविंद गोयल

3 comments:

ABHISHEK MISHRA said...

आज हिदू समाज को ऐसे ही संत सैनिको की आवशयकता है

Manish said...

राधा कृष्ण जी के वचनों को हम तक पहुचने का धन्यवाद...
परिवार नियोजन पर उनकी बात ठीक लगी ...
तो फिर प्रश्न है की बढती जनसँख्या को कैसे नियंत्रित किया जाये..

वैसे इस महगाई में दो संतानों को भी पाल पाना कठीन है लोगो के लिए..
सोच अच्छी है ... शायद कोई इसे जीवन में लागु भी करे

Sri Gau Sanskriti Dharm Sanstha said...

बहुत ही शानदार। आपने राधाकृष्ण जी के माध्यम से बहुत ही उपयोगी संदेश जन जन तक पहुंचाया है। धन्यवाद। --रवि साहुवाला