श्रीगंगानगर-दशकों
पहले घरों की दीवार में कहीं ना कहीं एक या दो आले जरूर हुआ करते थे। आले मतलब
छोटा सा खांचा....यह तीन चार फुट की ऊंचाई पर होता। छोटा मोटा सामान रख दिया जाता। संध्या बाती
हो जाती। रोशनी के लिए दीया-लालटेन रख देते। इसका एक और महत्वपूर्ण काम था,वह
था शिशु को अपनी गोद में बिठाना। सुबह शाम जब घर की औरतें काम करती....शिशु बीच बीच में आ
परेशान करता तो माँ,ताई,चाची उसे आले में बैठा देती। और तब तक बच्चा
आले में ही रहता तब तक की काम नहीं हो जाता। क्योंकि उतर तो सकता नहीं था। उसके बाद उसे बड़े लाड़ से उतारा जाता। बेचारे लाल कृष्ण आडवाणी खुद ऐसे ही
आले में जा बैठे। यह आला घरेलू की बजाए राजनीतिक था। अब आडवाणी जी बैठ
तो गए। मगर ये भूल गए कि अब वे बूढ़ा गए हैं। हाथ-पैर पहले जैसे नहीं रहे। छलांग
मार के उतरने से बचे खुचे दांत टूटने का खतरा था। किसी पार्ट की हड्डी चटक जाती तो
जुड़नी भी नहीं थी। उनको आला तो याद रहा लेकिन बुढ़ापे की विवशता याद नहीं रही। खुद
तो उतर नहीं सकते थे....दूसरे उतारते तो आले
में जा बैठने की नोबत ही क्यों आती! समय बितने लगा... इंतजार होने लगा कोई
आए....लाड़ करे और आले से उतारे। काम निपटाना था इसलिए आडवाणी को आले से उतारने की
उतावली किसी को नहीं थी। सब अपने अपने काम में थे। कोई आले में बैठा है तो बैठा
रहे। आले में कितनी देर बैठ सकते थे आडवाणी जी। बुढ़ापे का शरीर अकड़ गया। बैठे रहना
मुश्किल हो गया। किसको आवाज दें?
जो आवाज में आवाज मिला रहे थे वे भी आडवाणी को आले से उतारने में सक्षम नहीं थे। कहने
कुहाने से आडवाणी जी किसी तरह खुद ही उतर तो गए...इस चक्कर में खूब चोट लगी। बदन छिल गया। बाहरी की बजाए अंदरूनी चोट अधिक लगी। चोट हृदय तक जा
पहुंची। अब चूंकि आले में खुद ही जाकर बैठे थे इसलिए आरोप किस पर लगाते। अब हालत ये कि किसी को ना तो चोट दिखा सकते हैं
और ना ही बता। इससे पहले शायद ही किसी नेता के साथ ऐसा हुआ हो। इसके जिम्मेदार खुद
आडवाणी ही हैं। सच कहते हैं कहने वाली कि बुढ़ापे में मती मारी जाती है.....सो मारी गई। बैठे बिठाए
बुढ़ापा खराब कर लिया। अच्छे भले लोह-पुरुष कहलाते थे। अब बीती हुई बात हो गए। जो
रीत गया समझो बीत गया।
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