आजादी की ६३वी सालगिरह,सावन की बरसात,दोस्त के साथ, चले गए पीपली लाइव देखने। सालों बाद किसी फिल्म को थियेटर में देखने का मन बना था। बनना ही था। प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने इसकी इतनी बल्ले बल्ले की कि हमें ऐसा लगा अगर पीपली को नहीं देखा तो हमारा जीना ही बेकार हो जायेगा। लोग ताने मार मार के हमें जिन्दा ही मार देंगे। अंत देखकर यही सोचा कि क्यों आ गये इसे देखने। सब कुछ ठीक था। मीडिया जो असल में करता है वह तो फिल्म में जानदार शानदार और दमदार तरीके से दिखाया गया है। लेकिन आखिर में मीडिया को क्या हो जाता है। वह ऐसा तो नहीं है कि उसे पता ही ना लगे कि मरने वाला नत्था नहीं लोकल पत्रकार है। पोस्ट मार्टम के दौरान भी पहचान नहीं हुई कि मरने वाला नत्था नहीं है। जबकि दोनों के पहनावे, बदन की बनावट में काफी अंतर था। इससे भी कमाल तो ये कि "नत्था" की लाश को ख़बरों में दिखाने से पहले ही मीडिया छूमंतर हो गया। ऐसा होता नहीं है। मुझे तो लगता है यह फिल्म किसान की स्थिति पर नहीं मीडिया के प्रति दिल में छिपी कोई भड़ास निकालने के लिए है। इसमें कोई शक नहीं कि लोकल लेवल की किसी बात का बतंगड़ इसी प्रकार बनता है। मगर ये नहीं होता कि किसी को पता ही ना लगे कि मरने वाला नत्था था या कोई ओर। जिस तमन्ना से फिल्म देखने और दिखाने ले गए थे वह पूरी नहीं हुई। लेकिन फिर भी दो घंटे तक दर्शक इस उम्मीद के साथ थियेटर में बैठा रहता है कि कुछ होगा और फिल्म ख़त्म हो जाती है। समस्या के साथ समाधान भी होता हो अच्छा होता।
1 comment:
munivar..ye kya keh rahe hai aap...narayan..narayan...aapki baat sahi hai ..par phir bhi mujhe to maja aaya!
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