श्रीगंगानगर--सुना भी है और पढ़ा भी है कि एक मछली पूरे तालाब को गन्दा कर देती है। पढाई और जिंदगी के अब तक के अनुभव में ये दूसरी बार देखा कि कोई एक किरोड़ी सिंह बैंसला किसी प्रदेश की सरकार के वजूद पर प्रश्न चिन्ह लगा लगा सकता है। लाखों देशवासियों की दिनचर्या को बाधित कर सकता है। वह इतना सक्षम है कि वो चाहेगा तो रेल चलेगी नहीं तो नहीं। ऐसा सक्षम की सरकार वहां आएगी जहाँ बैंसला जी चाहेंगे, वह भी घुटनों के बल। असहाय,निश्तेज और एक याचक की तरह। बैंसला जी को इस देश में आन्दोलन करने का हक़ है तो दूसरों को सामान्य जिंदगी जीने का अधिकार भी है। जो संविधान बैंसला को अपने समाज के हक़ के लिए आन्दोलन करने का अधिकार देता है वही संविधान दूसरों को बेखौफ जीवन बीतने का हक़ भी तो देता है। अफ़सोस, बैंसला जी ने शायद इसे अपनी मर्जी से प्रभाषित कर लिया और वोटों की खातिर पार्टियों ने उनका साथ दिया। डर सबको लगता है इसलिए कोई बोल नहीं रहा। खुद राज्य सरकार डरी,सहमी है। पटरी से उतरी , उतारी गई सरकार के दौड़ी दौड़ी पटरियों पर जाने का यही कारण है। ठीक है सरकार चलाने वालों में जन जन के प्रति विनम्रता होनी चाहिए किन्तु इसे ऐसे आदमी के समक्ष कमजोरी या कायर नहीं दिखना चाहिए जिसने लाखों लोगों की नाक में केवल इस लिए दम कर रखा हो कि उसकी नाक ऊँची हो जाये,ऊँची रहे। सबकी निगाहें श्रीमान बैंसला की तरफ है। जैसे वही इस सृष्टि को चला रहा हो। दस दिनों से प्रदेश के बहुत बड़े हिस्से में अशोक गहलोत की नहीं बैंसला की अपनी सरकार चल रही है। बैंसला आरक्षण के लिए अड़े हैं। सरकार वोटों के लोभ में वह नहीं कर रही जो उसका कर्तव्य और धर्म है। विपक्ष मानों ये कह रहा है, लो तुम भी चखो बैंसला के आन्दोलन का स्वाद। लोकतंत्र का यही सबसे बड़ा सुख है कि आपके पास भीड़ है तो आप कुछ भी कर सकने को स्वतंत्र हैं। आप जितने अधिक लोगों को परेशान करेंगे, सरकार को अंगूठा,जीभ दिखाकर चिढ़ायेंगे। उसको अपने समर्थकों के समक्ष घुटनों पर चलवाएंगे ,आप उतने ही बड़े लीडर का ख़िताब पाओगे । हम अपने फायदे के लिए दूसरों के परेशान करके खुश होते हैं। नाचते हैं। गाते हैं। मतलब यही ना कि बैंसला जी सरकार से लेकर अन्य लोगों का मजाक बना रहे हैं। अपना फायदा करना, उसके बारे में सोचना कोई गलत नहीं। मगर आप दूसरों को हैरान,परेशान,दुखी क्यों कर रहे हो। क्या इसलिए कि कोई आपके सामने नहीं हो रहा।देश को सही ढंग से चलाने के लिए चार स्तम्भों का ज़िक्र होता है। ये आन्दोलनकारी तो किसी स्तम्भ पर विश्वास करने को राजी नहीं लगते। बैंसला जी तो पढ़े लिखे आदमी बताए जाते हैं। पढ़ लिख कर आदमी ऐसा करता है। ये अचरज की बात है। सरकार की कोई ना कोई मज़बूरी होगी वरना सरकारें तो लुटने ,लुटाने के लिए ही होती है। कोई लूटने वाला चाहिए। नेताओं का जनता का माल किसी खास जाति,वर्ग की जनता को बांटने या लुटाने में क्या जाता है।
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