श्रीगंगानगर।
एक जमाना था जब उसका हर रस्ता “मुझ” से होकर गुजरता था। । ठीक उसी तरह
जैसे किसी आशिक का रस्ता उसकी महबूबा के घर की गली से होकर जाता है। कोई भी
समय हो। कहीं भी जाना हो। रस्ता मुझसे होकर ही आता- जाता। काम से। बे काम
से मिलना। सुबह से लेकर शाम तक। कोई ऐसा दिन नहीं जब मिलना ना हो। जब हर
रस्ता आपसे होकर गुजरे तो फिर बंदे की तारीफ करने को जी करता ही है,भई!
कमाल का बंदा है। इतना प्रेम! इतना अपनापन! स्नेह की जैसे बरसात होने लगी।
समय अचानक बदला । पता ही नहीं लगा कि जो हर रस्ता मुझ से होकर जाता था वह
किधर को मुड़ गया। जब रस्ते ही नहीं होंगे तो लोग आएंगे भी कहां से। ये बात
बेशक लेखक ने अपने आप को केंद्र बिन्दू बनाकर लिखी। किसी ओर को केंद्र
मानता तो शायद गरिमामय ना होता। मगर हजारों ऐसे व्यक्ति,परिवार होंगे
जिनको ये लगेगा कि ये तो उनके लिए ही लिखा गया है सब कुछ। क्योंकि वे जीवन
में कितनी ही बार रिश्तों की बदलती इस परिभाषा को पढ़ते हैं।रिश्तों को
मीठे से कसेला होते महसूस करते हैं। समय समय पर रिश्तों से गुलजार रस्तों
पर पसरे सन्नाटे को देखते हैं। और फिर सवाल करते हैं अपने आप से,आखिर
रिश्ते इतने मतलबी क्यों हो गए! इस हवा में कब ऐसा क्या घुला कि बिना मतलब
के कोई बात ही नहीं। कोई काम है तो रिश्ता बना लो,वरना दफा करो। जब तक काम
है तब तक चलते रहो साथ।हाथ मिलाते रहो। जय राम जी की बुलाते रहो। काम नहीं
रहा तो बदल लो रस्ते। ढूंढ लो कोई दूसरा रस्ता काम का। बना लो फिर कोई
रिश्ता जो काम का लगे। रिश्तों में एक दूसरे से काम निकलवाना कहां बुरा है!
जब रिश्ते बनेंगे तो काम भी होंगे एक दूसरे को एक दूसरे से। लेकिन रिश्ता
केवल काम के लिए ही बनाया जाए,इसे उचित नहीं कहा जा सकता। ये तो कोई ठीक
बात नहीं। कोई जमाना था जब रिश्तों को आपस में बांधे रखने की वजह
प्यार,अपनत्व,स्नेह थे। इनकी कच्ची डोर से रिश्ते मजबूती से बंधे रहते
थे। परिवार,लोक-लाज,समाज का भी योगदान हुआ करता था रिश्तों के बंधन में।
सामाजिक परंपरा भी निभाई जाती थी। अब तो रिश्तों को केवल जरूरत और मतलब ही
बांधकर रखता है। जरूरत है तो रिश्ता, नहीं तो नहीं। मतलब के लिए ही रिश्ते
बनाए जाते हैं। रिश्तेदारी निभाई जाती है। जिस से काम है या काम हो सकता
है उससे ही रिश्ता रखने का रिवाज है आजकल। काम! काम तो कोई भी हो सकता
है,छोटा,बड़ा। प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष। बाकी के लिए तो हर कोई ये ही कहता
है,अरे! क्या लेना है रिश्ता बना के! ये रिश्ते इस दौर में इतने मतलबी
क्यों होने लगे हैं, इसका जवाब किसके पास है? कौन बताएगा कि ऐसा कैसे हो
गया! किसको समझ है ये समझाने की। कोई समझने भी क्यों लगा! उसको जरूरत क्या
है इसकी!
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