Friday, October 23, 2015

मैं को मार पात्र को जीवंत करना मुश्किल होता है


श्रीगंगानगर। भगवा वस्त्र पहन लेने मात्र से कोई संत महात्मा नहीं बन जाता। ना ही दो चार लाइन लिखने से कोई पत्रकार बनता है। ऐसे ही किसी पात्र का  वेश धारण करने से ही कोई वह पात्र नहीं हो जाता। क्योंकि अभिनय हर किसी के वश मेँ नहीं है। अभिनय करना हो, तब भी नहीं कर पाते। जिस पात्र की भूमिका मेँ कोई है, उसे अपने हाव, भाव मेँ जिंदा रखना मुश्किल हो जाता है। क्योंकि इसके लिए मैं को खोना पड़ता है। भूलना होता है। किन्तु ऐसा हो नहीं पता। पात्र की वेषभूषा मेँ लिपा पुता व्यक्ति अपने अंदर यह बात नहीं बैठा पाता कि अब वो वो नहीं है जो वह असल मेँ है। बल्कि अब वो वो है जो नहीं है। उसे इस रूप मेँ  उसे जीवंत करना है, जो वह नहीं है। पात्रों पर मैं को हावी होते अनेक स्थानों पर देखा जाता है। दशहरा उत्सव के दौरान रामलीला मैदान मेँ तो यह मैं बिखरा पड़ा था। राम- रावण सहित अनेक पात्र हजारों हजार लोगों के बीच थे। असल मेँ वही तो इस उत्सव के प्राण थे। ये ना हों तो उत्सव निष्प्राण रहे। परंतु अफसोस लगभग दो घंटे के लिए भी पात्रों के अंदर का मैं नहीं निकला। वे अपने मैं को पात्र से अलग ही नहीं कर पाए। राम-रावण नहीं बन पाए। जिनको देखने लोग आए हुए थे। रामलाल, श्याम लाल आदि ही रहे। इसकी वजह भूमिका करने वाले पात्रों का विवेक तो होता ही हैं, साथ होता है वहां का माहौल। लोगों की मानसिकता । भीड़ का चरित्र। मीडिया की  कुछ नया पन पाने की ललक। यह सब पात्र के अंदर बैठे मैं  पर भारी पड़ते ही पात्र गुम हो जाता है। अब राम रावण को मग से पानी पिला रहा है। रावण का दल एक स्टाल पर पानी पीने जाता है। फोटो खिचवाता है। पात्र सेल्फी ले रहे हैं। दे रहे हैं। पात्र काला चश्मा पहन लेता है। ऐसे बातों से पात्रों की मर्यादा समाप्त होती है। व्यक्ति उस पात्र को जी नहीं पाता, जो वह बना है।  ये सब करने की  जरूरत नहीं होती। शौक पूरा करना भी हो तो मंच के पीछे किया जाता है ये सब। मंच पर जनता के सामने नहीं। यह उन पात्रों का अपमान है, जिनको जीया जा रहा है। लोगों का तो काम है भटकाना। मीडिया का काम है फोटो के लिए ललचाना। परंतु उस व्यक्ति के विवेक पर निर्भर है कि वो कितना पात्र को जीता है। वो भी समय था जब दशहरा मैदान मेँ राम और रावण की सेना बहुत ही गरिमापूर्ण तरीके से मैदान का चक्कर लगा युद्ध किया करती थी। लोग उस मिट्टी को प्रणाम किया करते थे, जहां राम, रावण का पात्र अपने पैर रखता था। अब तो चूंकि पात्र पात्र नहीं होता, इसलिए उसका वह मान, सम्मान और आदर भी नहीं होता। श्रद्धा भाव भी नहीं दिखाई देते। असल मेँ कसूर किसी का नहीं है। क्योंकि ये केवल रामलीला के मंच या दशहरा मैदान मेँ ही नहीं हो रहा। घर घर यही कहानी है। हम जीवन मेँ अपने वास्तविक पात्र को ही ठीक से नहीं निभा पाते तो ओढ़े हुए पात्रों को निभाने की क्षमता कैसे आ सकती है। कौन है जो दूसरे से खुश हो! पति को पत्नी मेँ कमी नजर आती है, पत्नी को पति नहीं भाता। बच्चों को माता-पिता खडूस लगते हैं, माता -पिता को बच्चे जिद्दी और नालायक। जितने रिश्ते हैं, ये सभी पात्र ही तो  हैं और दुनिया है रंगमंच। जब हम इनको निभाना सीख जाएंगे तो रामलीला का मंच हो या दशहरा का मैदान, वे सब पात्र जीवंत नजर आएंगे, जिनको व्यक्ति ओढ़ता है।  दो लाइन पढ़ो—

सबक तो हूं नहीं जो मुझे याद रखे कोई 
सफर मेँ मिला था, सफर मेँ छोड़ दिया। 

1 comment:

जसवंत लोधी said...

अति सुन्दर है ।Seetamni. blogspot. in