श्रीगंगानगर-बीजेपी
विधायक राधेश्याम गंगानगर के समर्थकों ने उनके जन्मदिन पर एक प्रकार से चुनावी
अभियान शुरू किया है। विधायक का जन्मदिन एक जनवरी को है। उनको बधाई देने के लिए
शहर के हर क्षेत्र में उनके समर्थकों की ओर से होर्डिंग,छोटे बोर्ड लगाए गए हैं। ये बात किसी से छिपी नहीं है
कि नाम तो समर्थकों के हैं लेकिन लगवाने वाले तो राधेश्याम गंगानगर और उनका परिवार
है। हालांकि राधेश्याम गंगानगर ने फेसबुक पर ये लिखवाया है.... “व्यक्तिशः मैं इस तरह के आयोजनों में यकीन
नहीं रखता पर शहरवासियों और कार्यकर्ताओं के प्यार के आगे राधेश्याम गंगानगर भी
नतमस्तक है, शहर के विकास में
मेरी ओर से किए गए प्रयासों को मान्यता देने के लिए धन्यवाद !!!” किन्तु सब जानते हैं कि राधेश्याम गंगानगर की
इस प्रकार के कामों में मास्टरी है। उनको इसी कारण से शो मैन भी कहा जाता है। राधेश्याम
गंगानगर का यह 74वां जन्मदिन है। लेकिन ये पहली बार है कि नगर में इस प्रकार से
होर्डिंग लगा कर उनको बधाई दी गई हो। विधायक कहते हैं कि यह सब शहरवासियों और
कार्यकर्ताओं का प्यार है। किन्तु उनका फेसबुक का कवर फोटो भी इसी प्रकार के एक होर्डिंग की कॉपी है। नगर
की शायद ही कोई बड़ी सड़क या चौराहा होगा जहां बीजेपी विधायक का होर्डिंग ना हो।
सबसे अचरज है इन होर्डिंग और बोर्ड पर बीजेपी नेता वसुंधरा राजे सिंधिया की फोटो। वो
बधाई देने वालों में से नहीं है। इसके बावजूद हर होर्डिंग और बोर्ड पर एक तरफ
राधेश्याम गंगानगर हैं तो दूसरी तरफ वसुंधरा राजे सिंधिया। अब संघ के पैरोकारों या
आरएसएस से जुड़े लोगों के दिलों पर साँप लौटे तो लौटे। बाऊ जी की बला से। चुनाव को
एक साल रह गया। बाऊ जी के लिए इससे अच्छा मौका और क्या हो सकता था अभियान की
शुरुआत करने के लिए।
Saturday, December 29, 2012
Tuesday, December 25, 2012
कांस्टेबल सुभाष चंद के लिए इतनी खामोशी क्यों?
श्रीगंगानगर-गैंग रेप के बाद देश के विभिन्न हिस्सों में
आंदोलन हुए। छपास के रोगियों को काम मिल गया। जिसने कभी अपने शहर में महिला से हुई
ज्यादती के खिलाफ आवाज नहीं उठाई वह विज्ञप्ति जारी कर गैंग
रेप के दोषियों की मांग करने लगा। कैन्डल मार्च। भाषण बाजी। किसी स्कूल में तो कभी
सड़क पर,हर तरफ
एक ही बात “दिल्ली
का गैंग रेप।“ लेकिन
कांस्टेबल सुभाष चंद की मौत पर सभी चुप हैं। मालूम
नहीं ना यह कौन है? सुभाष चंद दिल्ली पुलिस का वह कांस्टेबल है जो
दिल्ली के इंडिया गेट पर हुए “दंगे” में घायल हुआ। जिसकी आज सुबह मौत हो गई। तब से अब तक
बारह घंटे हो गए किसी ने उसको सलाम तक नहीं बोला। सोशल मीडिया पर “दामिनी” के
लिए पोस्ट लिख लिख कर अपने आपको महिलाओं के पक्षधर साबित करने वाले। जुल्म के
खिलाफ आवाज उठाने का दम भरने वाले,इस मौत पर कुछ नहीं बोल रहे। गैंग रेप ने दिल्ली पुलिस को “शर्मिंदा” किया था तो
सुभाष चंद की मौत ने “आंदोलनकारियों” को भी
थोड़ा बहुत तो शर्मिंदा किया ही होगा। सुभाष चंद्र किसी का पति था। किसी “दामिनी” का
पिता था। भाई था। रिश्तों में सुभाष चंद वह सब
था जो हम और आप हैं। उसके परिवार और रिश्तेदारों के साथ भी तो अन्याय हुआ है। न्याय की बात करने
वालों को अब क्या हो गया? क्यों
नहीं न्याय की मांग कर रहे? सुभाष
चंद ने तो कोई ऐसा काम नहीं किया जिसकी सजा उसको मिली। वह तो केवल डयूटी कर रहा था
अपनी। अब क्यों दिल्ली चुप्प है? खामोशी क्यों हैं दूसरे उन शहरों में जो “दामिनी” के
लिए सड़कों पर उतर आए थे? “दामिनी:
के लिए जलायी गई कैन्डल बुझा क्यों दी गई? न्याय तो सभी को मिलना चाहिए। ये तो हो नहीं सकता की
“दामिनी” के
लिए न्याय कुछ अलग किस्म का है और सुभाष चंद के लिए दूसरे प्रकार का। हमने तो यही
पढ़ा है की न्याय बस न्याय होता है। वह ना तो उम्र देखता है ना कोई रंग रूप। वह किसी से वर्ग भेद भी नहीं
करता और उसकी नजर में गरीब,अमीर,महिला,पुरुष,सरकारी,गैर
सरकारी सब एक समान हैं। जब न्याय सबको बराबरी का हक देता है तो फिर न्याय के लिए
आवाज बुलंद करने वाले सुभाष चंद के नाम पर चुप्प क्यों हो गए। उनके मुंह से एक
शब्द भी नहीं निकल रहा। ना तो वे “दामिनी” को जानते थे और ना ही सुभाष चंद को। उन्होने तो एक घिनोने
कांड
के खिलाफ आवाज उठाई। जन जन को जागृत किया। इनके लिए सब एक समान। फिर न्याय के
लिए उठाई मशाल से अब न्याय की रोशनी की तरफ बढ़ते कदम क्यों रुकने लगे हैं? तो
क्या “दामिनी” के
लिए हुआ आंदोलन क्षणिक आवेश था। युवाओं का आक्रोश था। जो दिल्ली पुलिस की पानी की
बोछारों से ठंडा हो गया। तो क्या अब कभी किसी जुल्म के खिलाफ आवाज नहीं उठेगी?
हैरानी है इस सोच पर। युवाओं के जज्बे पर। आंदोलन के मूड पर। “दामिनी” के
साथ घोर अन्याय हुआ है तो अन्याय सुभाष चंद के परिवार के साथ भी हुआ ही है। उसको
सलाम कहने का फर्ज तो बनता ही है। हर समय पुलिस को कोसते हैं आज तो सुभाष चंद के
परिवार का जय हिन्द सुनने का हक है। याद हमने
दिला दिया। बाकी मर्जी आपकी।
Monday, December 24, 2012
सामाजिक बहिष्कार से बड़ी सजा कोई नहीं हो सकती-एसपी
श्रीगंगानगर-दिल्ली
की घटना के बाद से पुलिस दवाब में है। इसी संदर्भ में हमने एसपी संतोष चालके से
बात की। हमने उनसे पूछा,दिल्ली की घटना के बाद पुलिस पर कितना दवाब है? दवाब पर ज़ोर देते हुए एसपी बोले,दवाब शब्द उचित नहीं है। महिलाओं की गरिमा,आत्म सम्मान के बारे में पुलिस को संवेदनशील
होना ही चाहिए। इसमें कोई दो राय हो ही नहीं सकती। एसपी ने बताया,न्यास व्यवस्था के चार अंग हैं। पुलिस,कोर्ट,कानून
और प्रक्रिया। इन सभी में सुधार की आवश्यकता है। पुलिसकर्मियों को बढ़ाने की आवश्यकता
है। पुलिस कर्मियों में संवेदनशीलता बढ़ाने की आवश्यकता है। उनकी पैट्रोलिंग बढ़ाने
की जरूरत है। उसके बाद न्यायिक प्रक्रिया में सुधार की जरूरत है। उन्होने जज ज्ञान
सुधा के एक लेख का हवाला देते हुए कहा कि पीड़िता के बयान मजिस्ट्रेट के सामने ही
हो जाने चाहिए। ताकि उसे बार बार पुलिस के सामने आने की जरूरत ही ना हो। दिल्ली
गैंग रेप के संदर्भ में उन्होने कहा, कुछ लोग कहते हैं कि फांसी की सजा हो जाए। गैंग रेप जैसी घटना में फांसी
की सजा करना कोई आपत्तिजनक नहीं है...करनी चाहिए। अल्टिमेटली तो कोर्ट डिसाइड करेगा...देनी है कि नहीं। एसपी
ने राय दी कि इसके साथ साथ जो ऐसा अपराध कर रहा है वह फिर ऐसा करने के काबिल ही न
रहे, यह सजा अधिक कारगर होगी। उन्होने
टाइम्स ऑफ इंडिया के एक सर्वे के आधार पर कहा कि लॉ का डर नहीं होने के इस प्रकार
की घटनाएं बढ़ रही हैं। कार की एड में लड़की की क्या आवश्यकता है। एसपी ने कहा,इसके लिए पुरुष की मानसिकता में बदलाव हो।
व्यवस्था में परिवर्तन हो। बर्डन ऑफ प्रूफ आरोपी पर हो। फास्ट ट्रायल हो। यह सब
करना जरूरी है। एसपी श्री चालके ने बताया कि दिल्ली में सीसीटीवी की वजह से वह बस
पकड़ में आई। हर जगह पुलिस नहीं हो सकती। इसलिए सीसीटीवी कैमरे लगवाने का अभियान शहर में चला रखा है। एसपी ने कहा कि ईव
टीजिंग को कानून बनाया जाना चाहिए। “इट शुड बी कोग्नीजेबल ओफ़ेन्स।इट शुड बी नॉन बेलएबल ओफ़ेन्स एंड देयर शुड बी
जीरो टोलरेंस पॉलिसी।“ ताकि कड़ी
कार्यवाही हो सके। एसपी की राय में लड़की से छेड़खानी की घटना के बाद आरोपी के बचाव
में कोई सफाई नहीं होनी चाहिए...कि ये नाबालिग है। लड़की ने उकसाया था,,,आदि आदि। उनके अनुसार केवल तमिलनाडु में ईव
टीजिंग एक्ट है। एसपी संतोष चालके ने कहा कि जिसके साथ छेड़ खानी होती
है वह विरोध करे। साथ वालों को बताए। हल्ला मचाए। साथ वाले छेड़ खानी करने वाले को पकड़े। क्योंकि सामाजिक बहिष्कार से बड़ी
कोई सजा किसी के लिए हो ही नहीं सकती। जेल में अपराधी भी बलात्कार के आरोपी को
अपने से अलग रखते हैं। उससे घृणा करते हैं तो हम क्यों नहीं कर सकते। पूरी
मानसिकता बदलने की जरूरत है।
Sunday, December 23, 2012
अपने नगर में क्या होता है वह तो दिखता नहीं .....
श्रीगंगानगर-दिल्ली की घटना से पूरे देश में आक्रोश है।
गुस्सा है। नाराजगी है। हल्ला है। चर्चा है। देश भर की पुलिस अपने आप को लड़कियों
के प्रति और चौकस हो जाने के दावे और कोशिश कर रही है। बच्चे,युवा,महिला संगठन,स्कूल,स्कूल,कॉलेज,राजनीतिक,सामाजिक,धार्मिक
संगठन अपनी अपनी तरह से प्रदर्शन कर घटना के प्रति अपनी भावना प्रकट कर रहे हैं। बड़े मीडिया घराने भी “खबर” के लिए कई बार ऐसा करवा लेते हैं। बड़ी घटना हो तो तो
फिर ये सब होना स्वाभाविक है। यही हिंदुस्तान की खासियत है। ऐसा ही है देश के
लोगों का मिजाज । किसी भी बड़ी घटना पर हर कौने से
एक ही आवाज सुनाई देती है। एक सी भावना महसूस होती है। जन जन ऐसी घटना के खिलाफ
पूरी ताकत से खड़ा हो आवाज बुलंद करता है। ये सब करने वालों को सलाम। होना भी यही
चाहिए। जुल्म के खिलाफ हल्ला बोलना वक्त की जरूरत है। लेकिन
हैरानी इस बात की है कि किसी को भी अपने अपने शहर में हर रोज लगभग हर सड़क पर
लड़कियों से होने वाली छेड़-छाड़ ना तो दिखाई देती है और ना वे कमेंट्स सुनाई देते
हैं जो लड़के आती जाती लड़कियों पर करते हैं। आतेजाते लड़की का पीछा करते लड़कों को नजर अंदाज कर
देता है हर कोई। बस,वह ये जरूर देखता है कि जिसके
पीछे लड़के लगे हैं वह लड़की उसके अपने परिवार की तो
नहीं। सड़क पर इस प्रकार के लड़कों के कमेंट्स को सुन नजर झुका कर अपनी राह जाती बेबस
लड़की भी किसी को नहीं दिखती। ना
उनको उसके चेहरे पर लड़कों का खौफ दिखता है। ना शर्म से झुकी उनकी गर्दन और
आँख। दिखे भी तो कैसे उनकी खुद की
नजर ऐसा दृश्य देख इधर-उधर हो
जाती है। आवारा लड़के लड़कियों का पीछा ऐसे करते
हैं जैसे
जंगल में कई शेर किसी अबोध हिरनी का शिकार करने दौड़ते हैं। जो संगठन और लोग दिल्ली
की
घटना से उद्वेलित हैं वे अपने शहर का क्यों नहीं सोचते! हम लोग कोई बड़ी घटना होने
पर ही घरों से बाहर क्यों निकलते हैं? छोटी छोटी
छेड़-छाड़,छींटा-कसी की घटना को पहले ही स्तर पर रोका जाए। उसके खिलाफ आवाज उठाई
जाए। लेकिन सब के सब मजबूर हैं। समय ही ऐसा है। जिसके पक्ष
में कोई
बोलेगा वह तो साइड में हो जाएगा और स्यापा हो जाएगा उसके साथ
जो बोलेगा। कितने परिवार हैं जो इस प्रकार के लड़कों से दो दो हाथ करते हैं?
अधिकांश परिवार डरते हैं। लड़कों से भी और अपनी इज्जत से भी। उनका डर
किसी हद तक जायज भी हैं। ऐसे मामले में लड़कों के खिलाफ कोई आएगा नहीं। संभव
है लड़के फिर उस लड़की और लड़की के परिवार का जीना हराम कर दें। किसी को इस बात पर एतराज नहीं हो सकता कि लोग
दिल्ली की घटना के प्रति इतने संवेदनशील क्यों हो रहे हैं? अफसोस,आक्रोश
की वजह ये कि यह सब होता ही इसलिए है कि आम जन चुप्प रहता है। संगठन केवल बड़ी घटना
का इंतजार करते हैं। जब पानी सिर से ऊपर गुजर जाता है तो देश भर में मच जाता है
हल्ला।
Wednesday, December 19, 2012
सुनो!चलने के लिए सड़क तो खाली छोड़ दो....
श्रीगंगानगर-ढाई
दशक बाद के दो काल्पनिक दृश्यों का जिक्र, उसके बाद आगे बढ़ेंगे। पहला
सीन-लड़का घर से निकला। पड़ौसी को मन ही मन कोसा और आवाज दी,अंकल,गाड़ी थोड़ा इधर उधर करो। मुझे ऑफिस जाना है। अंकल
को भी गाड़ी निकालनी थी। दोनों गाड़ियां गली
मे रहने वाले दूसरे लोगों की गाड़ियों के साथ ही सड़क पर खड़ी थीं। दूसरा सीन-बीमार
व्यक्ति को गाड़ी में हॉस्पिटल ले जाया जा रहा है। कोई ऐसी सड़क नहीं जहां दोनों तरफ
गाड़ियां पार्क ना हों। सड़क पर वाहन जगह मिलती तो कभी चलते जगह नहीं होती तो रुकना भी पड़ता। जैसे
तैसे गाड़ी किसी तरह आगे बढ़ी तो बीमार की नब्ज रुक गई। अभी हंसी में उड़ा देंगे इस
कल्पना को। किन्तु ऐसा ही होगा। कारण? कारण यही कि नगर की सड़कों की चौड़ाई तो बढ़ी नहीं सकती हमारी
इच्छा बढ़ रही है, सरकारी सड़क को अपना बना लेनी की। उसे अपने घर,दुकान में समाहित कर लेने की। यह सिलसिला ऐसे ही चला तो जो आज कल्पना है
वह सालों बाद हकीकत होगी। सालों पहले लोगों के पास ना तो इतनी गाड़ियां थी और ना
मकानों के चारदीवारी। बाइक,साइकिल होती थी जो सुबह आँगन से चबूतरे पर आ जाती। कार-वार होती तो उसके लिए गैराज होता था। समय बदल
गया। घर में गैराज हो ना हो छोटी
बड़ी कार जरूर होगी। एक घर में एक से अधिक वाहन। जो रात भर तो चबूतरे पर रहती है। सुबह होते ही उनको
सड़क पर पार्क कर दिया जाता है। इसकी चिंता नहीं कि सड़क पर आने जाने वालों को परेशानी होगी।
पूरे शहर में ऐसा होता है।सड़क कोई भी हो घर घर के
सामने यही दृश्य दिखाई देंगे। ये दृश्य कभी समाप्त नहीं होने वाले। हो भी नहीं सकते।
क्योंकि सड़क, सड़क रहने वाली नहीं। या तो वह हमारे लालच की
भेंट चढ़ जाएगी या उसे पूरी तरह पार्किंग
पैलेस में बदल जाना है। चबूतरे की जगह तो कभी से हमारी हो चुकी। नाली को भी किसी
ना किसी बहाने कवर कर ही रहे हैं। वोट और नोट की राजनीति के कारण कोई किसी को रोकने वाला है नहीं। जिसने ऐसा कर लिया वह सुखी। जो नहीं कर सका वह या तो पछताता है या कुढ़ता है व्यवस्था पर। अपने आप पर।
जो सुखी हो जाते हैं उन्हे इस बात की
चिंता नहीं कि जब सड़क पर जगह ही नहीं होगी तो हम चलेंगे कहां? इस बात की फिक्र भी कोई क्यों करने लगा कि हमारे बच्चे हमें क्या कहेंगे? जब हमें इन बातों से ही कोई सरोकार नहीं तो शहर के लिए
क्यों सोचने लगे! संभव है जो आज ऐसा कर रहे हैं वो उक्त काल्पनिक दृश्यों को हकीकत
बनते देखने के लिए हो ही ना।
Tuesday, December 11, 2012
मोहब्बत लेकर आए मोहब्बत ही देकर गए...
श्रीगंगानगर-बड़ी
अनोखी है रिश्तों की दास्तां। रिश्ते ऐसे भी, जो दर्द देते हैं और ऐसे भी जो बस सुकून,सुकून और सुकून प्रदान करते हैं। रिश्ते बनाने
और निभाने में फर्क है। रिश्तों में उपेक्षा और कई प्रकार के अहंकार की खटाई भी हम डालते हैं और अपनत्व की मिठास भी। मिठास भी ऐसी कि जो सीधे दिल की धड़कन के साथ जा कर मिल
जाती है। इस मिठास के साथ दिल जब धड़कता है तो केवल अपने लिए नहीं बल्कि उस रिश्ते
के लिए भी धक धक करता है। रिश्तों की इस मिठास की महक नाक से नहीं दिल से ली जाती
है। सब कुछ है इस समाज में। रूबरू कौन कहाँ हो, कोई नहीं जानता। ऐसे मीठे रिश्तों का जब
कोई साक्षी बनता है तो उसकी महक दूर दूर तक पहुँचती है। ये महक
बिखरी है छोटे परिवार के बड़े आलीशान निवास स्थान पर।भौतिक सुख सुविधाओं की
कोई कमी नहीं। जो देखे मन में बस जाए। पैर रखो तो लगे कि कहीं फर्श मैला न हो जाए।
इस निवास ने कइयों को दिखाई रिश्तों की नई राह। माध्यम बनी एक शादी। शादी ना
तो इस निवास स्थान पर हुई ना ही यह शादी इसमें रहने वाले किसी व्यक्ति के परिवार
या रिश्तेदार की थी। शादी इस निवास के मालिक के सैकड़ों किलोमीटर दूर रहने वाले
बेटे के दोस्त के बेटे की थी। उसने अपने कई पुराने दोस्तों को परिवार सहित वहीं
रुका दिया। जो रुके उनमें एक परिवार ने ऐसा निवास देखा तक नहीं था। स्टेट्स की
झीझक। रुकने ना रुकने का असमंजस। आधा घंटा मन में उधेड़बुन चलती रही। सभी को वहीं
डेरा जमाना पड़ा। समय आगे बढ़ा। छोटा परिवार
कुछ घंटे में संयुक्त परिवार में कब परिवर्तित
हो गया, किसी को पता ही नहीं
लगा। शादी किसी और परिवार में थी। रिश्तों की सुगंध यहाँ। शादी के घर तो फंक्शन के
समय ही जाते । बाकी पूरा समय यहीं हंसी मज़ाक। घर परिवार की बात। घर की बहू कुछ समय
में ही किसी की चाची,किसी की
देवरानी,किसी की भाभी और किसी
दीदी बन गई। रसोई में देर रात तक सभी के लिए कुछ ना कुछ बंता रहता। “मेहमान” महिलाएं भी रसोई में होती हाथ बटाने के
लिए। जब सूरज
का दूर दूर तक पता ही नहीं होता था घर की बहू
उठती। सभी के लिए चाय,मिठाई,बिस्कुट। फिर नाश्ता...। जितना समय शादी वाले
घर या पैलेस में नहीं बिताया जितना उन सभी ने इस घर में बिताया,जहां वैभव होने के बावजूद वैभव दिखाया नहीं जा रहा था। अपनापन लुटाया जा रहा था जिससे सभी पुलकित
थे। आने के समय जो संकोच में थे वे स्नेह से अभिभूत थे। प्रत्यक्षदर्शी बताते हैं कि जिनके यहां
शादी थी उनके यहां तो पता नहीं लेकिन इस घर में मेहमानों की रवानगी के समय ऐसा सीन
था जैसे कोई परिवार प्रदेश रहने वाले बहू-बेटे,दामाद-बेटी को विदा कर रहा हो। किसी ने किसी को भौतिक
रूप से कुछ नहीं दिया। आदान प्रदान हुआ तो केवल और केवल मोहब्बत का। मोहब्बत देकर
गए और मोहब्बत लेकर गए।
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